December 23, 2019
मुसाफिर का कोई घर नहीं होता
मुसाफिर का कोई घर नहीं होता
गाँव, कस्बा या कोई शहर नहीं होता
आज यहाँ है तो कल वहाँ
यारो मुसाफिर का कोई घर नहीं होता।
उम्मीदों के चिराग जलाये, रात-दिन घूमते हैं
मंजिल को याद कर पल-पल झूमते हैं।
क्योंकि सपनों का कोई शिखर नहीं होता।
यारो मुसाफिर का कोई घर नहीं होता।
कैसी भी हो बाधा अनवरत चलते हैं
हर जख्म को मरहम में बदलते हैं
बुलंद हौसलों को किसी का डर नहीं होता।
यारो मुसाफिर का कोई घर नहीं होता।
सच के लिए जीवन जीते हैं
जमाने के दिए कटु अनुभव पीते हैं
लाखों की हो रिश्वत, फिर भी दृढ़ता पर असर नहीं होता
यारो मुसाफिर का कोई घर नहीं होता।
जिंदगी एक सराय है, कल सभी को जाना है
कुछ पल की उदासी है, कुछ पल का तराना है
रंक तो रंक है साथी, राजा भी यहाँ अमर नहीं होता
यारो मुसाफिर का कोई घर नहीं होता।
© Dr. Pawanesh
Share this post