कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

लोक संस्कृति के कुशल चितेरे: ब्रजेंद्र लाल साह

जन्मदिन विशेष: 

लोक संस्कृति के कुशल चितेरे: ब्रजेंद्र लाल साह

        रंगकर्मी व रचनाकार ब्रजेंद्र लाल साह का जन्म 13 अक्टूबर, 1928 को अल्मोड़ा में हुआ था। आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण की और विशेषकर हिंदी कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। शैलसुता, अष्टावक्र और गंगानाथ इनकी प्रमुख हिंदी पुस्तकें हैं। आपके द्वारा बलिदान, कसौटी, आबरू, एकता, सुहाग दान, चौराहे की आत्मा, चौराहे का चिराग, शिल्पी की बेटी, पर्वत का स्वप्न, रेशम की डोर, रितुरैंण, खुशी के आंसू, पहरेदार, भस्मासुर, राजुला- मालूशाही आदि हिंदी नाटकों के लेखन व मंचन के अलावा कुमाउनी व गढ़वाली रामलीला का लेखन व मंचन किया गया।

     सुप्रसिद्ध कुमाउनी गीत ‘बेड़ू पाको बारामासा’ की रचना भी आपके ही द्वारा की गई। आपकी कुमाउनी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। आपने आकाशवाणी के लिए भी निरंतर लेखन किया। आपने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार के गीत एवं नाटक प्रभाग में विभिन्न पदों पर कार्य किया। सन् 2004 में साहजी इस लौकिक संसार को छोड़कर चल दिए। 

      पिथौरागढ़ के साहित्यकार महेश पुनेठा के अनुसार, ब्रजेंद्र लाल साह ने ‘लोक कलाकार संघ’, ‘पर्वतीय कला केंद्र’ जैसे प्रसिद्ध सांस्कृतिक संगठनों के साथ मिलकर सांस्कृतिक आंदोलन को आगे बढ़ाने में अपना अप्रतिम योगदान दिया। नई पीढ़ी को पर्वतीय लोक संगीत का प्रशिक्षण प्रदान कर उनका सांस्कृतिक मानस तैयार किया। उनमें लोक को गहराई से जानने की ललक पैदा की। एक ऐसा रास्ता उन्हें दिखाया, जो अतीत से वर्तमान तक तो आता ही है, भविष्य की ओर भी ले जाता है। वे अपने आप में एक संस्था थे। इसी तरह पद्मश्री शेखर पाठक भी उन्हें एक रचनात्मक संस्कृतिकर्मी मानते हैं- “रचनात्मकता, प्रयोगशीलता, सीखने-सिखाने की ललक, निश्चलता, बात-बहस को महत्ता, और इस सबसे आगे लिखना, गाना, नाचना, हुड़का बजाना इतना सब संस्थाओं में ही होता है, व्यक्तियों में नहीं। पर उनमें था।”

   ब्रजेंद्र लाल साह जी को उनके द्वारा रचित गीत बेडु पाको बारमासा से अपार ख्याति मिली। बेडु पाको बारमासा उत्तराखण्ड का एक प्रसिद्ध कुमाउनी गीत है। इस गीत को मोहन उप्रेती तथा बृजमोहन शाह द्वारा संगीतबद्ध किया गया है। राग दुर्गा पर आधारित इस गीत को पहली बार वर्ष 1952 में राजकीय इण्टर कॉलेज, नैनीताल के मंच पर गाया गया। यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पसंदीदा गीतों में से था।

     ब्रजेंद्र लाल साह जी द्वारा लिखित कुछ पुस्तकों की चर्चा यहाँ की जा रही है-

1. माँ नंदा चालीसा- ‘माँ नंदा चालीसा’ की रचना ब्रजेंद्र लाल साह जी ने माँ नंदा की प्रेरणा से मात्र 2 घंटे की अवधि में माँ नंदा परिसर में परिक्रमा करते हुए नंदा राजजात सन् 2000 में की थी। ब्रजेंद्र लाल साह ने ‘माँ नंदा चालीसा’ को दोहा- चौपाई छंद में लिखा है। नंदा चालीसा की शुरुआत उन्होंने चार दोहों से की है। प्रारंभिक दोहा निम्न है-

जय नंदा जय पार्वती, जय गिरिराज कुमारि। 
जय महिषासुर मर्दनी, चंड-मुंड असुरारि। 

     चार दोहों के पश्चात् वे चौपाई के माध्यम से रचना को विस्तार देते हैं और माँ नंदा की स्तुति करते हुए लिखते हैं-

जय माँ नंदे जग हितकारी। 
जयति पार्वती शैल-कुमारी।। 
रूप अनेक तुम्हारे छाए। 
उन सबको हम शीश नवाएं।।….. 

    ‘नंदा चालीसा’ का समापन भी वे चार दोहों के साथ करते हैं। अंतिम दोहा निम्न है-

जिसको भी कंठस्थ हो, यह देवी-आख्यान। 
कृपा दृष्टि उस पर करें, नंदा देवि महान।। 

     ‘माँ नंदा चालीसा’ पुस्तक में एक श्री नंदा भजन व श्री नंदा आरती भी दी गई है। नवरात्रि के अवसर पर भक्तों द्वारा इस पुस्तक को समय-समय पर प्रकाशित कर निशुल्क प्रसारित किया जाता है।

2. उपन्यास ‘शैलसुता’– शैलसुता साह जी द्वारा लिखित पहला उपन्यास है। यह चंपावत गढ़ के ऐतिहासिक एकहथिए के नौले के संबंध में प्रचलित लोक आख्यान को आधार बनाकर लिखा गया है। इस उपन्यास में चंद कालीन समाज, संस्कृति एवं लोकजीवन का विशद् चित्रण हुआ है। 

 इस उपन्यास की प्रेरणा के संबंध में साह जी लिखते हैं- “पर्वतीय अंचल का ग्रामीण क्षेत्र ही इसका प्रेरणास्रोत है।….. जनमानस के गीतों को आत्मसात करने से पूर्व जन-जीवन को आत्मसात करना परम आवश्यक है। मुझे विभिन्न स्थितियों में अनेक ग्रामों में जन-साधारण के साथ घुल-मिलकर रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ, तभी मैं लोकमानस और लोक-जीवन का अध्ययन कर सका और एक भ्रमणशील बंजारे का जीवन जीकर अनेक सुखद और दुःखद अनुभूतियों को अपने में संजो सका और वर्षों के अंतर्मंथन के बाद यह रचना प्रस्तुत कर सका।” 

     इस उपन्यास में उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल की लोकसंस्कृति, खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, मेले, उत्सव, प्रथाओं, लोकगीत, लोकनृत्य, प्रकृति-परिवेश, स्थापत्य कला, मूर्तिकला आदि का बखूबी चित्रण हुआ है। उपन्यास से लोकसंस्कृति को दर्शाने वाला एक उदाहरण दृष्टव्य है- “रंग बिरंगी मिर्जई, दुपलिया टोपी और तंग मुहरे की पायजामा पहने हुए रंगीले ग्रामीण अपने हाथों में छोटा सा शीशा और रंगीन रूमाल लिए ‘छपेली’ गाते हुए नाच रहे थे।”

      ब्रजेंद्र लाल साह जी ने आजीवन लोकसंस्कृति के लिए कार्य किया। एक ओर तो उन्होंने रंगकर्म के माध्यम से उत्तराखंड की लोकसंस्कृति को जीवंतता प्रदान की, वहीं दूसरी ओर अपनी कलम के माध्यम से भी लोकसंस्कृति को ही मुखरित किया। इस प्रकार वे उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के कुशल चितेरे रचनाकार व रंगकर्मी के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। निश्चित रूप से उत्तराखंड व कुमाऊँ अंचल की लोकसंस्कृति को उनका योगदान अतुलनीय है। 

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