दीपावली पर विशेष- 5 प्रेेम कविताएँ 1. दीये ने जलने से इनकार कर दिया इस बार दीपावली में दीये ने जलने से इनकार कर दिया। उसे आदत हो चुकी थी उनके नर्म हाथों के स्पर्श की। उसे आदत हो चुकी थी उनके चेहरे की रोशनी को खुद में समेट लेने की।
उसके जाने से बारिश की लाखों बूदें उतना नहीं भिगा पाई मुझे जितना उसके नयनों से गिरती दो बूदों ने भिगाया मुझे दुखों की मार उतना नहीं रूलाती मुझे जितना उसकी यादों ने रूलाया मुझे वो चली गई मुझे छोड़कर उसी तरह जिस तरह चला जाता है कोई अपना पुस्तैनी मकान छोड़कर
भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा अंबर देखा, बादल देखे तारों का उन्माद देखा भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा। पानी के बुलबुले-सी उसकी हंसी धीरे से मेरे कानों में धंसी कुछ ही पलों बाद मैंने अरमानों का झुंड टहलता आबाद देखा। भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा। सिक्के
मुझे वह चुलबुली लड़की याद आती है मुझे स्कूल के दिनों की चौथे नंबर की बैंच पर बैठने वाली वह चुलबुली लड़की याद आती है। उसका हंसना उसका रोना पन्ने पलटते हुए उसका मुड़-मुड़ पीछे देखना उसका हर अंदाज उसकी हर बात याद आती है मुझे वह चुलबुली लड़की याद आती है।
स्याही बनकर आती रहो बहुत उदास है जिंदगी इसलिए तुम मुस्काती रहो हम हंसते रहेंगे। बहुत बेसुरे से हैं सुर इसलिए तुम गाती रहो हम सुनते रहेंगे। चांद के पास अपनी रोशनी भी तो नहीं इसलिए तुम किरण बनके चमकाने रहो हम चमकते रहेंगे। बहुत नादान है ये दिल कुछ समझता ही नहीं इसलिए