कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

बल्ली सिंह चीमा का गजल संग्रह: जमीन से उठती आवाज 

बल्ली सिंह चीमा का गजल संग्रह: जमीन से उठती आवाज 

पुस्तक के विषय में: 

जमीन से उठती आवाज 

       ‘जमीन से उठती आवाज’ जनकवि बल्ली सिंह चीमा का गजल संग्रह है। इसका पहला संस्करण नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद से 1990 में प्रकाशित हुआ था। इसमें चीमा जी की 1978 से 1990 तक की गजलें संकलित हैं। इस संग्रह में ऐसी गजलें हैं जिनके पैर मजबूती के साथ जमीन पर जमे हुए हैं यानि मजदूरों, किसानों की आवाज को मुखर करने वाली गजलें बल्ली सिंह चीमा के इस संग्रह में संगृहीत हैं। इस संग्रह की गजलें गजलें नहीं, बल्कि जमीन से उठती आवाजें हैं, जिनमें मजदूरों, किसानों, शोषितों की पीड़ा है। उनका संघर्ष है। 

    इस संग्रह से तीन चयनित गजलें नीचे दी जा रही हैं-

      1. इनसान से मत खेलिए

बस भी करिये अब मेरे ईमान से मत खेलिए। 
हवस की खातिर दिले नादान से मत खेलिए। 

मंदिरों या मस्जिदों की क्या कमी है देश में, 
इनकी खातिर अपने हिंदोस्तान से मत खेलिए। 

ये छुरा, किरपाण, ये त्रिशूल भी रखिए मगर, 
इनकी खातिर देश की पहचान से मत खेलिए। 

हाथ में हंसिया हथौड़ा ही सही पहचान है, 
भूख से लड़ते हुए, इनसान से मत खेलिए।। (पृ०15) 

      2. ले मशालें चल पड़े हैं 

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के।
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के।

कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के।

बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के।

कफन बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के।

हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के।

दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंकलाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के।

एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के।

तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में।

देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के।। (पृ०11) 

       3. गजल ढूंढता हूँ

उदासी में खुशियों के पल ढूंढता हूँ। 
मैं सूखे कुँए में भी जल ढूंढता हूँ। 

ये जीना हमारा है मरने से बदतर, 
न ऐसे जिऊंगा बदल ढूंढता हूँ। 

सजे फूल गमलों में तुमको मुबारक, 
मैं कीचड़ में उगते कमल ढूंढता हूँ। 

हमेशा से मुर्दे तो रोते रहे हैं, 
मैं जिंदा दिलों में गजल ढूंढता हूँ। (पृ०79) 

रचनाकार के विषय में- 

बल्ली सिंह चीमा

      बल्ली सिंह चीमा का का जन्म 2 सितंबर, 1952 को अमृतसर जिले की चभाल तहसील के चीमा खुर्द गाँव में हुआ था। तीसरी कक्षा पास करने के बाद आप घरवालों के साथ सुल्तानपुर पट्टी (नैनीताल) आकर बस गए। यहीं से आपने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की पढ़ाई के लिए आप पंजाब आ गये, जहाँ सुरजीत पात्तर और जोगिंदर कैरों जैसे पंजाबी लेखकों से आप परिचित हुए। बीए प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के बाद आपकी पढ़ाई छूट गई। 

      आपने 1974 से पंजाबी में लिखना शुरू किया। प्राइवेट से प्रभाकर परीक्षा उत्तीर्ण करने शिक्षक बनने के आपके स्वप्न पूरे नहीं हो पाये, जिस कारण सुल्तानपुर पट्टी लौट आये और खेती करने लगे। आपको 1978 में लिखी गजल ‘ले मशालें चल पड़े हैं’ से अत्यधिक ख्याति मिली। आपकी एमरजेंसी के विरूद्ध लिखी गई कविताओं और गजलों का संग्रह ‘खामोशी के खिलाफ’ 1980 में प्रकाशित हुआ। ‘उजालों को खबर कर दो’ उनकी नवीनतम प्रकाशित कृति है। आप जनवादी धारा के प्रमुख कवि माने जाते हैं। 

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