कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

त्रिभुवन गिरि का आंचलिक खंडकाव्य: क्या पहचान प्रिया की होगी

हिंदी खंडकाव्य: क्या पहचान प्रिया की होगी

साथियों, पुस्तक चर्चा के अन्तर्गत आज हम बात करेंगे हिंदी खंडकाव्य ‘क्या पहचान प्रिया की होगी’ की। इस खंडकाव्य के रचयिता हैं- त्रिभुुवन गिरि। 

 खंडकाव्य के विषय में-

क्या पहचान प्रिया की होगी

     ‘क्या पहचान प्रिया की होगी’ उत्तराखंड के प्रसिद्ध लेखक त्रिभुवन गिरि का हिंदी खंडकाव्य है। इस खंडकाव्य के प्रथम संस्करण का प्रकाशन संवत् 2067 ई० हुआ। इसका मुद्रण उत्तरायण कंप्यूटर्स, अल्मोड़ा ने किया है। 

      ‘क्या पहचान प्रिया की होगी’ उत्तराखंड की पर्वतीय नारी के जीवन का अनूठा खंडकाव्य है। वस्तुतः यह एक संदेश अथवा दूत काव्य है, जिसमें कालिदास के मेघदूतम् के नायक यक्ष की तरह इस खंडकाव्य का नायक भी अपनी प्रिया को हवा, कफुवा पक्षी, मोनाल पक्षी के माध्यम से संदेश भिजवाना चाहता है। पूरे महाकाव्य में नायक की नायिका ( प्रिया ) के प्रति व्याकुलता व विरह वेदना दिखाई देती है। 

     नायक के संदेश के माध्यम से ही खंडकाव्य में पर्वतीय जन-जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है। विशेषकर खंडकाव्य में पर्वतीय नारी का जीवन और उसका संघर्ष दर्शनीय है। खंडकाव्य की भाषा अत्यंत सहज, सरस, प्रवाहशील होने के साथ-साथ अलंकारों, छंदों, बिंबों, मुहावरों, कहावतों, गेयता, आंचलिकता और अन्य काव्यगत विशेषताओं से परिपूर्ण है। इस खंडकाव्य में कुमाउनी के ढुंङ- पाथर, शराब, बाटुली, कुकैल, घुघुती, मनसुप, मोहिली, कफू, पिरूल, ब्याल, कुचिकुचि, हृयून, उड्यार, कलिकलि, पुंतुरी, झिटगड़ि आदि जैसे सैकड़ों शब्दों का प्रयोग हुआ है। इस खंडकाव्य की उपर्युक्त विशेषताओं के कारण ही डॉ. देवसिंह पोखरिया ने इसे एक उत्कृष्ट आंचलिक खंडकाव्य कहा है। 

     इस खंडकाव्य से पर्वतीय नारी की जिजीविषा को दर्शाती कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

देखो हरे-भरे खेतों में
बाली-सी लहराती होगी
खाद भरा डाला लेकर वह
दूर सार को जाती होगी। 

या पिरूल का जाल समेटने
दागड़ाण्यों संग जाती होगी
कहते-कहते भूल गया हूँ
क्या पहचान प्रिया की होगी। 

गोबर माटी सने हुए पग
श्रम गंधा बिखराते होंगे
भरी धोपरी घाम चूटते
घर वन एक लगाते होंगे।

गयी रात अपने पैरों को
वह विराम दे पाती होगी
शब्द नहीं मैं गड़ पाता हूँ
क्या पहचान प्रिया की होगी। 

फिर दिसांण जाने से पहले
अपनी सुधि में आती होगी
छ्यूल जला मरहम लीसे से
अपने पैर टल्याती होगी। 

या कि थकान दूर करने को
लमपसार सो जाती होगी
लेकिन तुम्हें बताऊँ क्या मैं
क्या पहचान प्रिया की होगी। ( पृ० 27 )


पुस्तक का नाम- क्या पहचान प्रिया की होगी
विधा- खंडकाव्य
रचनाकार- त्रिभुवन गिरि
प्रकाशक- उत्तरायण कंप्यूटर्स, अल्मोड़ा
पुस्तक का मूल्य- 150 ₹ ( सजिल्द संस्करण) 
पृष्ठ संख्या- 80


रचनाकार के विषय में-

महंत त्रिभुवन गिरि 

     28 अक्टूबर, 1946 को अल्मोड़ा जनपद के ऐंचोली गाँव में जन्मे त्रिभुवन गिरि का मूल नाम राजेंद्र बोरा है। हिंदी साहित्य से एम.ए. उत्तीर्ण बोरा जी वर्तमान में संन्यासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हिंदी और कुमाउनी साहित्य, हुक्का क्लब व रंगमंच को उनका विशेष योगदान रहा है। वे हिंदी और कुमाउनी दोनों भाषाओं में लिखते हैं। उनकी पहली किताब ‘बांजि कुड़िक पहरू’ नाम से 1984 में प्रकाशित हुई थी। यह एक कुमाउनी कविता संग्रह था। यह कविता संग्रह खासा चर्चित रहा। इसके पश्चात बोरा जी ने क्या पहचान प्रिया की होगी ( आंचलिक हिंदी खंडकाव्य ), भेट ( कुमाउनी काव्य संग्रह ), सुरजू कुंवर ( कुमाउनी नाटक संग्रह ), कल्याण ( कुमाउनी उपन्यास), नारद मोह ( कुमाउनी नाटक ), गोरिल (कुमाउनी महाकाव्य), महामाया जन्म ( हिंदी नाटक), भाना गंगनाथ (कुमाउनी काव्य) आदि पुस्तकें लिखीं। पर्वतीय नारी के जीवन को चित्रित करने वाला ‘क्या पहचान प्रिया की होगी’ जैसा अत्यंत सरस और मार्मिक हिंदी खंडकाव्य शायद ही आज तक किसी लेखक ने लिखा हो।  

        साहित्य लेखन ही नहीं वरन् रंगमंच और क्षेत्रीय सिनेमा से भी आप लगातार जुड़े हैं। संभवतया बहुत कम लोगों को पता होगा कि कुमाउनी की पहली फिल्म ‘मेघा आ’ की कहानी व गीत भी त्रिभुवन गिरि जी ने ही लिखे हैं। बलि वेदना, शिवार्चन, आई गै बहार, पधानी लाली, आपण बिराण, अभिमान ठुल घरै चेलिक आदि फिल्मों में भी आपका योगदान रहा है।

        भारत प्रसिद्ध ‘हुक्का क्लब’ की रामलीला का 55 वर्षों से भी अधिक समय तक आपने संपादन में योगदान दिया। रामलीला में आपने रावण, मेघनाद, दशरथ, परशुराम, अंगद, हनुमान, ताड़का आदि पात्रों का अभिनय भी किया। आप वर्तमान में भी साहित्य सृजन में रत हैं। आप हिंदी और कुमाउनी की निरंतर सेवा करते रहें। हमारी हार्दिक शुभकामनाएँ। 

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