कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

हम बच्चे हैं हमेें मुस्कुराने दो

हम बच्चे हैं हमेें मुस्कुराने दो

एक लंबा अरसा बीत गया किसी बच्चे को नहीं देखे हुए। आजकल के बच्चों को बच्चा कौन कहेगा भला। तीन साल की उम्र में ही सयाने हो जाते हैं। ऐसी ऐसी बातें करने लगते हैं कि बड़े भी दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर हो जाते हैं। आजकल के बच्चों के तौर तरीके बदल गये हैं। उनके खेल-खिलौने,उनका व्यवहार सब कुछ बदल गया है। मोबाइल, टीवी, कम्प्यूटर ही आजकल के बच्चों के खिलौने हैं। आधुनिक बच्चों का खेल के मैदानों से कोई वास्ता नहीं। वो तो बस दिन भर कमरे के भीतर पापा के मोबाइल में गेम खेलते रहते हैं। टीवी में कार्टून देखते रहते हैं। कंप्यूटर में इंटरनेट चलाते रहते हैं। 

        आज के बच्चे समय के अनुसार तेजी से बदल रहे हैं। लेकिन क्या आज के बच्चे वाकई में बच्चे हैं? यह गहन चिंतन का विषय है। जब बच्चों की बात होती है तो उनका परिवेश भी ध्यान में रखना जरूरी होता है। आज बच्चों के बचपन पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। बच्चों से उनका  बचपन छीना जा रहा है या छिन रहा है। गांव में रहने वाले बच्चे आज भी लंबी पैदल दूरी तय कर स्कूल जाते हैं। उनके लिए पढ़ने के अवसर आज भी बहुत कम उपलब्ध हैं। गांव के बच्चे घरेलू काम काजों में उलझा दिए जाते हैं। विशेषकर लड़कियों के मामले में ऐसा अधिक देखने को मिलता है। शहरों के बच्चे बंद कमरे के भीतर ही अपनी दुनियां बनाते हैं, हालांकि इनके लिए पढ़ाई के अवसर पर्याप्त मात्रा में मौजूद रहते हैं। 

        बच्चों से उनका बचपन छिनने के मामले में प्रमुखतया उनके अभिभावक ही जिम्मेवार होते हैं। आज के अभिभावकों में ना जाने कहां से यह गलतफहमी घर कर गई है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा हुआ बच्चा ही जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। जबकि सच इसके विपरीत है। बच्चे उस भाषा में बेहतर सीखते हैं जो उसे माता द्वारा प्रदान की गई होती है। यानी मातृभाषा बच्चों के विकास हेतु सर्वाधिक उपयोगी भाषा है। अंग्रेज भारत को लूटने के लिए ही भारत आये थे। अत: इस भाषा से भारतीयों को अनैतिकता और अमानवीयता के सिवा कुछ हासिल नहीं हो सकता, क्योंकि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाने हेतु किन अश्त्रों का प्रयोग किया, यह बात जगजाहिर है। 

         हमारे देश में बच्चों के शारीरिक और मानसिक शोषण के मामले भी बहुतायात में आते हैं। बाल मजदूरी की शिकायतें भी काफी आती हैं। हम बच्चों से उनका बचपन छिनते हुए देखते हैं पर कुछ कर नहीं पाते। जिस देश में बच्चों को भगनान का रूप माना जाता है, उस देश में बच्चों के शोषण, बलात्कार, मानसिक प्रताड़ना आदि के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। रिषि- मुनियों के देश में जब से क्लाइव की संतानों ने घुसपैठ की और ना जाने कितने काले अंग्रेज पैदा हुए तब से भारतियों की मानसिकता ही बदल गई। सोम रस का पान करने वाले शराब पीने लगे। नारी को देवी तुल्य मानने वाले नारी का अपमान करने लगे। ब्रह्मचर्य की बात करने वाले व्यभिचार करने लगे। और आज आलम यह है कि भ्रष्टाचार, व्यभिचार, आतंक, शोषण, यौन शोषण, मानसिक प्रताड़ना, पर्यावरण प्रदूषण आदि ने देश को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। समझ में नहीं आता, कि हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या दे रहे हैं ?? अशांति और दुखों के सिवा और कुछ नहीं।

          आज के बाजारवादी युग में हमारे देश के बच्चों का भविष्य और भी चिंताजनक दिखाई देता है। पाश्चात्स शिक्षा, सभ्यता, और संस्कृति ने हमारे बच्चों को पंगु बनाने के सिवा और कुछ नहीं किया है। अतः जरूरत इस बात की है कि हम अपने बच्चों को भारतीय शिक्षा, भारतीय आहार, परिधान और भारतीय ज्ञान- विज्ञान की शिक्षा दें। उन्हें प्रेम, भाईचारा, समानता आदि की शिक्षा दें। उन्हें अपने देश की माटी से प्यार करना सिखायें।उन्हें परेशान ना करें। उन पर काम का बोझ ना डालें। उन पर अपने विचार ना थोपें लेकिन होता इसके विपरीत ही है। मुझे गीजुभाई बधेका की एक कविता याद आ रही है-मैं खेलूँ कहां ?मैं कूदूँ कहाँ ?मैं गाऊं कहाँ ?मैं किसके साथ बात करूँ ?बोलता हूँ तो पिताजी खीजते हैंकूदता हूँ तो बैठ जाने को कहते हैंगाता हूँ तो चुप रहने को कहते हैंअब आप ही बताइये कि मैं कहाँ जाऊं ? क्या करूँ?        

          जब भी मैं आज के बच्चों को देखता हूँ तो मुझे उनके भीतर से आवाज आती हुई सुनाई देती है- हम बच्चे हैं, हमें मुस्कुराने दो। हमें रंग- बिरंगी तितलियों के साथ खेलने दो। हमें चिड़ियों की बोली में बोलने दो। हम बच्चे हैं हम पर काम का बोझ मत लादो। प्रिय पिता हम पर मत खीजो ! मेरी माता मुझे उछलने- कूदने दो। मेरे भैया मुझे मत डांटो। मेरे गुरूजी मुझे इतना होमवर्क मत दो कि मैं थक जाऊं।मुझ पर मत थोपो अपने सिद्धांत, अपने विचार। मेरे प्यारो मुझे रचने दो एक नई दुनिया। मुझे जीने दो बगीचे के फूलों के बीच। मैं भी मुस्कुराना चाहता हूँ। खिलना चाहता हूँ इन फूलों की तरह। सीखना चाहता हूँ- झरझर करते झरनों से, कल- कल करती नदियों से। चहचहाते पंछियों से, चमकते तारों से। मैं करना चाहता हूँ स्वतंत्र रूप से विचार। तभी मैं दे पाऊंगा अपने देश को कुछ मौलिक और नया। ले जा पाऊंगा अपने देश को शिखर पर। इसलिए मेरे प्यारो!  मैं बच्चा हूँ, मुझे मुस्कुराने दो।

( यह आलेख ‘उत्तरांचल दीप’ समाचार पत्र में पूर्व में प्रकाशित हो चुका है।) 

© Dr. Pawanesh

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