कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

नीली साड़ी वाला चांद

 नीली साड़ी वाला चांद

जब मैं छोटा बच्चा था तो रात को मां से चांद दिखाने की जिद किया करता था। माँ मना करती तो मैं रोने लगता था। मजबूर होकर माँ को चांद दिखाने मुझे छत पर ले जाना पड़ता था। तब माँ मेरा मुंह चांद की ओर करके गुनगुनाती थी-

“चंदा मामा आ जा।

दूध मलाई खा जा।”

मैं खुशी के मारे उछल पड़ता था और अपने दोनों हाथों को ऊपर करके चांद को अपने पास बुलाने की कोशिश करता था, लेकिन अब मैं छोटा बच्चा नहीं रहा। पूरे चौबीस साल का हो गया हूँ। समय के साथ सब कुछ बदला किंतु मेरी चांद को निहारने की आदत अब भी नहीं बदली है। पूर्णमासी का पूरा खिला चांद मुझे खास तौर पर पसंद है। मैं अब भी प्रतिदिन छत पर जाकर बादलों के साथ लुक्का- छिप्पी खेलते चांद को घंटों निहारा करता हूँ। उसे निहारने में मुझे एक सुखद एहसास मिलता है। माँ के साथ होने का एहसास।

माँ गाँव में रहती है और जब भी मुझे फौन करती है तो कहती है- “बेटा इस बार गाँव जरूर आना। मेरे साथ चांद देखेगा तो बचपन की यादें लौट आयेंगी। मैं माँ की बात को अनसुना कर शहरी वातावरण में ही खो जाता था या यूं कहो कि शहरी राग- रंग मुझे भाने लगा था। शहर के सरकारी स्कूल में सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए मुझे एक साल हो गया था। यहीं से पढ़ाई की और यहीं नौकरी भी लग गई। पिछले चार साल में मुझे गाँव जाने का मौका ही नहीं मिल पाया था। जब मैंने अपनी नियुक्ति की खबर माँ और पिताजी को बताई तो वे फूले नहीं समाये। गाँव में सबको मिठाई बाँटी गयी। रम्मू काका, खिमुली भौजी, चंदर, लल्लन, लच्छू, रूपा, मंजू सबने मुझे फोन पर बधाई दी। ये लोग भी मुझे समय- समय पर गाँव आने की जिद किया करते थे। करें भी क्यों न आखिर अपने ही तो थे सब।

सबकी जिद को ध्यान में रखकर मैंने भी गाँव जाने का निर्णय ले लिया था। इसी बीच एक दिन माँ का अचानक ही फोन आया- “बेटा, तू जल्दी गाँव आ जा। मैंने तेरे लिए एक ऐसा सुंदर चांद खोजा है कि अगर तू उसे देखेगा तो देखता ही रह जायेगा। वह आकाश में नहीं, यहीं पड़ोस के गाँव में रहता है। तू एक बार आकर उसे देख ले, तुझे जरूर पसंद आयेगा।”

मैं माँ की बात समझ चुका था। गाँव जाऊंगा तो जरूर माँ मेरी उसी चांद से शादी कर देगी। इस बात की आशंका से मैंने गाँव जाने का फैसला वापस ले लिया था। सच तो यह है कि मैं अभी शादी करना ही नहीं चाहता था, क्योंकि मुझे तो अभी उस चांद को खोजना था, जो दो माह पहले मुझे शहर के बस स्टेशन पर दिखा था। उसका गोल-गोल रोशनी भरा चेहरा और नीला परिधान देखकर मेरे मुंह से अनायास ही निकल पड़ा था- ‘नीली साड़ी वाला चांद !’

उसी समय एक बस आई और चांद उसमें सवार हो गया। मेरी निगाहें आज भी उस चांद को बेसब्री से तलाश रही हैं। मेरी नजरों के कैमरे द्वारा खींची, उसकी पहली ही तस्वीर हमेशा के लिए मेरे ह्रदय में कैद हो गई है। तब से मैं नित्य शाम को तीन बजकर तिरेपन मिनट पर बस स्टेशन पहुँच जाता हूँ और कुछ देर इंतजार करता हूँ, इस आश में कि जिस बस से चांद सवार होकर गया था; उसी बस से एक दिन लौटेगा भी।

जब से धरती के इस चांद को देखा है, तब से आसमां के चांद को निहारना अब भूल-सा गया हूँ। प्रतिपल खोया रहता हूँ, इसी चांद की कल्पनाओं में। सिर्फ एक झलक देखा है मैंने उसे.., ना कोई बातचीत.., ना कोई औपचारिकता…फिर भी कितना गहरा लगाव हो गया है उससे। अपरिचित होते हुए भी कितना परिचित है वो..।

यूँ ही इंतजार करते-करते दो साल गुजर गये, पर चांद मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। मैं कभी-कभी यह सोचकर मायूस हो जाता था कि शायद यह चांद मेरे नसीब में नहीं है, परंतु मन में एक आशा का दीप हमेशा जलता रहता। आखिर चांद आकाश में नहीं मुस्कुरायेगा तो और जायेगा कहाँ ?

आज घर से फोन आया लेकिन इस बार माँ नहीं बोली बल्कि पिताजी बोले- “बेटा ! तेरी माँ बहुत बीमार है। हर पल तुझे ही याद करती है। कहती है, मेरे आकाश बेटे को बुलाओ… मेरे आकाश बेटे को बुलाओ…। छह साल से मैंने उसका मुंह नहीं देखा है…।” और ऐसा कहते-कहते पिताजी का गला भर आया। मेरी पलकों से आंसू छलक पड़े। बसंत में अचानक हुई बरसात की तरह। जबाब में मैंने हां कहा और विलम्ब किये बिना ही दूसरे दिन गाँव पहुँच गया।

माँ बिस्तर पर लेटी थी किंतु मुझे देखते ही उठ खड़ी हुई और मुझे सीने से लगा लिया। जैसे कि माँ को कुछ हुआ ही न हो और वास्तव में कुछ हद तक ऐसा था भी। माँ को अपने लाल से दूर होने का दुख था और कुछ नहीं। शाम को माँ ने मेरे लिए मेरी पसंदीदा बादाम वाली खीर बनाई और अपने हाथ से मुझे खिलाती हुई बोली- “बेटा ! कल सुबह ही हम पड़ोस के गाँव चलेंगे, चांद देखने।”

आप अनुमान लगा सकते हैं कि माँ मुझे दूल्हे के रूप में देखने के लिए कितनी उतावली थी। साथ ही वह बहुत खुश भी थी, परंतु मैं बहुत उदास था; क्योंकि जो चांद मेरे दिल के करीब था, वास्तविकता में वह मुझसे कोसों दूर था। दूर भी नहीं कह सकता क्योंकि उसका तो मुझे अता-पता ही नहीं मालूम था। शायद अब वह नीली साड़ी वाला चांद मेरा कभी नहीं हो सकता। ऐसा ही कुछ सोचते-सोचते मैं निद्रा देवी के आगोश में समा गया था।

दूसरे दिन भारी मन से, न चाहते हुए भी मैं माँ के साथ पड़ोस के गाँव पहुँच गया, लेकिन वहां मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना ना रहा। मैंने देखा कि माँ की पसंद का चांद भी वही है, जो मेरी पसंद का है। वही नीली साड़ी वाला चांद….।

 

© Dr. Pawanesh

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