कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

कविता संग्रह राफ और राफ से चयनित 5 कविताएँ

कविता संग्रह राफ और राफ से चयनित 5 कविताएँ

       डॉ. देव सिंह पोखरिया के ‘राफ’ कविता संग्रह को वर्ष 2022 का शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ कुमाउनी कविता पुरस्कार देने की घोषणा हुई हैं। यहाँ प्रस्तुत है ‘राफ’ कविता संग्रह के विषय में संक्षिप्त जानकारी व संग्रह से चयनित 5 कविताएँ-

राफ कविता संग्रह

       डॉ० डी०एस० पोखरिया के ‘राफ’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 2010 में अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी से हुआ। राफ में ये कविताएँ क्रमशः हैं- म्यर शरीर, तू और मैं, त्यर ऊण-जाण, तेरि जै हो, बड़े दिए हात, तू औ, धात, उ म्यर गौं छु, धौंसिया ठोक धैं निसान, के तीसै रौल यो पहाड़ ?, चांदीक हिमाल, पहाड़ : 1, पहाड़ : 2, तिरंग लपेटीं गाड़ि, उठ घटाला, बादीं बिकास, गौंक राज, हलिया, ओ रे हलिया, अफी मरि सर्ग धेकीं, छूतक भूत, डाड़, गांधी ज्यू देश में समाजबाद, कुकरै सीख प्वाथ कैं, औ बादला : 1, औ बादला : 2, बसंत : 1, बसंत : 2, फूल के कूँ, किलै ऊनी याद ऊं, निर्मोही कंत, त्यार मायाक आँचल में, खोल आँखि, अभिलास, चाँठा घुरड़, तु ऐ जा, पैंल फूल, बरमाल : 1, बरमाल: 2, बरमाल : 3, अनुसंधान, जर्सि, म्यर घर, चुनाव, भोटर और उन, गङ, भासाकि टुकरि, ऊँ : 1, ऊँ : 2, धर्मनिरपेक्षताक ढूँन, उठौ रे ज्वानौ, ठाड़ ह्वेजा हैं। 

      इस संग्रह के शीर्षक ‘राफ’ का तात्पर्य है- आंच या ताप। यह आंच या ताप हमारे समय की सामाजिक, राजनीतिक और समसायिक विसंगतियों की आंच है, जिनको आधार बनाकर इस संग्रह का नाम ‘राफ’ रखा गया है। यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि कवि को हिमाल चांदी सा सुंदर नजर नहीं, बल्कि हिमाल से उसे राफ महसूस होती है। वस्तुतः यह हिमाल पूरे पहाड़ का प्रतिनिधित्व करता है, जो तमाम विसंगतियों की राफ से झुलस रहा है। ‘चांदीक हिमाल’ कविता में कवि का यही भाव है। 

      प्रो० एस० डी० तिवारी के अनुसार इस संग्रह की कुछ कविताएं राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत हैं, तो कुछ आध्यात्मिक और रहस्यात्मकता लिए हुए हैं। उनके अनुसार, संग्रह की ‘म्यर शरीर’ कविता में पूरे भारत का रूपक है- शरीर। कुछ कविताओं में सामाजिक परिस्थितियों पर व्यंग्य है, तो कुछ में विकास की वायवीय स्थितियों पर पहाड़ से पलायन क्यों हो रहा है, किन परिस्थितियों में हो रहा है, इसकी भी कवि ने पड़ताल की है और सिद्दत से उसे अभिव्यक्ति दी है। ‘पहाड़-1’ और ‘पहाड़-2’ कविताएं ऐसी ही कविताएँ हैं।

     डॉ. पोखरिया की कविताएँ आज के समय के यथार्थ को समेटे हुए हैं। वे एक ओर अपनी कविताओं के माध्यम से कह रहे हैं कि आज का आदमी तमाम सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों की आंच में तप रहा है, वहीं दूसरी ओर उनकी कविताएँ प्रकृति की सुंदरता को व्यक्त करने के साथ-साथ युवाओं को प्रेरित भी करती हैं। इस संग्रह की कविताओं में प्रकृति चित्रण और आलंकारिकता दर्शनीय है। ‘राफ’ संग्रह की कविताएँ भाव पक्ष व कला पक्ष दोनों दृष्टियों से सशक्त हैं। 

संग्रह से 5 चयनित कविताएँ

1. चांदीक हिमाल

के करूँ ये चांदी हिमालल?
न यो थेचीण
न यैक गहन बणनी।

दूर बटी तसै देखीं,
तुमून लागण हुन्यल भल
तबै देखछा भलै, तुम दूरबीनल ।

माग-पूस में पट्ट अरडूयै दीं यो
चैत-बैसाग में जरूर ठंड चिताईं हो मणी ।
सौन-भदौ में सब ध्वे-पुछि, बगै
जाँ ल्हिजाण हुनल यो हिमाल
गलै बेर आपण ह्यू,
तुमन खाली छुटै च्यूँ
हिमाल में रूनेरों दगे।

बरौमास याँ रौ चैं
तब जानला भली कै,
कि यो हिमाल क्याक छू,
यै भितरि कसि राफ छू,
यै में कसि आग छू ?

2. पहाड़ : 2

जाँक पौन- पाणि सुकिगो
जैलै आब ल्वे-मासु के न्हा
रैगी छुड़ी हाड़ै-हाड़
वी थैं कौनी पहाड़।

जाँक मनखी पैली
पउ- अद्द याद करछी
आज पउ-अद्द हात में ऐ गो जाँ
जाँकि जवानी गलि
रैगी छुड़ी हाड़-हाड़
वी थैं कौनी पहाड़।

जाँक सार्योंक पोस-पाणि
बगै लिहगै गाड़
जाँकि बुसी गै खेति-पाति और जवानी
जाँ जाम्ना पहाड़ै-पहाड़
वी थैं कौनी पहाड़।

जाँ जामते जानी
अभावा पहाड़
गाड़-गध्यारों छाल पड़ीं छन
योजनाओंक हाड़
जनुकें देखि बेर लै
कै नि औनि डाड़
वी थैं कौनी पहाड़।

जाँ पैड़ै भाजाभाज- छाड़ाछाड़
पशु, पंछी, बोट, डावों कि
लागिरै अगास खक्याड़
मनसुप हैगी दोफाड़
पसरि रयीं विकासा-दाड़
वी थैं कौनी पहाड़।

3. औ बादला : 2

मलिमली कि धुरिधुरी रिछे
औ बादला, तलिकै औ।
हवै में कि फुरिफुरी रिछै
औ बादला, तलिकै औ !

नि बुड़न म्योर हला सियो,
भरि दिनै कन सुक हियो।
धर्ति कब बै चैरे त्यार उज्याणि,
तू ऊनै कन अगासो भाबर फाणि।
कि टुकी रिछै तै हिमाला टुक में,
अफनै काम लागू, आफन दुख में।
तैं त बड़ मायदार छे, कि वेग्यो त्वेकन,
बरसि बेर भिजूनै कन धर्तिक ल्वेकन।

अफी फुटाल धारा, अफी फुटलि सीर,
अफी मर्चें भगदड़, अफी लड़नी बीर।
त्यार लिजी क्यालक पात में
पसकि रयूँ खीर,
औ बादला, तलिकै औ !

भरि दे बन-आँगन, भरि दे गाड़-खेत
कुदीठ जनरि लागिरै, उनन कर सरसेत।
पन्यै दे नानूँ केँ, पन्यै दे ज्वान्यूँ,
तेरी छ आस, तेरी तरप छ हात तान्यूँ।
औ बादला, तलिकै औ !

4. गङ

हमार देश में द्वी किसमै गङ बगने
एक हिमाल बै, एक दिलि-लिखनौ-देहरादून बै,
एक गङ जानै खेत – सारि – सिमार के
हरी-भरी करनै
गंगासागर तक।

और दुसरि गङ ऊनै अघिल कै छिरते
पछिल बै एक लंब रेगिस्तान छोड़ते हुए
हिमाल तक।

5. उठौ रे ज्वानौ !

पड़ि गै धात उठौ रे ज्वानौ ।
रड़ि गै थात उठौ रे ज्वानौ !!

मुखपन अपना छपकै ल्हीयौ,
सूर की लाली को पाणी।
देखियाँ छन् यो बोट-बद्यावा,
कब् बटि तुमनेँ आँखा ताणी।
बैतालिक बणि पंछी गाणी,
किलै नि फुटनै तुमरी बाणी ?
तिमिर-निशा में किलै सितीं छा,
स्वैणों की चादर कैं ताणीं?
पड़ि गै धात उठौ रे ज्वानौ !
रड़ि गै थात उठौ रे ज्वानौ !!

जलनौ सरग जलौ तुम भीं पन,
चलनौ पवन चलौ तुम भीं पन।
गलनौ बरफ गलौ तुम भीं पन,
फलनौ लगन फलौ तुम भीं पन।
रूख डला पर्वत यो सब्बै,
तमार दगड़ हाव-गङ् छन गाणीं।
ल्वे चुसुवा इन स्याप-सँपोलों,
की करि दीयौ आज निखाणी।
जाँ – जाँ दूला इनार देखीनी,
भ्यार ख्येड़ि दियौ बोजी भाणी!
उच्च पहाड़ों में रूनेरौ !
आज बचावौ अपणि निशानी।
पड़ि गै धात उठौ रे ज्वानौ !
रड़ि गै थात उठौ रे ज्वानौ !!

Share this post

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!