आम की टोकरी: साधारण शब्दों की असाधारण कविता
छह साल की छोकरी: विमर्श का तीसरा कोंण
साथियों, पिछली पोस्ट में हमने ‘छह साल की छोकरी’ कविता विवाद से संदर्भित पक्ष और विपक्ष दोनों को आपके समक्ष रखा था। इस पोस्ट में मैं अपनी बात रखूंगा। हो सकता है आप मुझसे सहमत ना हों, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि बात रखी जानी चाहिए।
मुझे लगता है कि अब यह छोटी-सी लगने वाली साधारण- सी कविता साधारण नहीं रही। क्यों नहीं रही इस पर अपने विचार रखता हूँ-
पहले यह कविता-
छह साल की छोकरी,
भरकर लाई टोकरी।
टोकरी में आम हैं,
नहीं बताती दाम है।
दिखा-दिखाकर टोकरी,
हमें बुलाती छोकरी।
हम को देती आम है,
नहीं बुलाती नाम है।
नाम नहीं अब पूछना,
हमें आम है चूसना।
1. मनुष्य की निकृष्ट सोच की पोल खोलने वाली कविता-
इस कविता पर अनेक लोगों ने अश्लील होने के आरोप लगाये, जो निरर्थक ही नहीं बल्कि एक प्रकार से एक निकृष्ट सोच की अभिव्यक्ति करते हैं। यदि ‘आम चूसना’ अश्लील है तो केला खाना, संतरा खाना क्या है ? आम तो चूसकर ही खाया जाने वाला फल है। आम को काटकर प्लेटों में परोसकर खाना सभ्यता का प्रतीक हो सकता है लेकिन हम आम को चूसकर खाने को न तो अश्लील ही कह सकते हैं और न ही असभ्य। बल्कि सच तो यह है कि बच्चों को आम चूसकर खाने में ही आनंद आता है।
कुल मिलाकर इस कविता ने हमारी निकृष्ट सोच की पोल खोलकर रख दी है। इस कविता के भावों को अश्लील कहकर हमने कहीं न कहीं हमने अपने भीतर की गंदगी को सबके समक्ष रख दिया है।
2. शब्दों पर सार्थक बहस कराने वाली कविता-
इस कविता ने शब्दों के प्रयोग पर सार्थक बहस छेड़ी है। कुछ लोगों का कहना है कि सार्वभौमिक, सर्वग्राह्य और विद्वता को प्रदर्शित करने वाले शब्दों का ही प्रयोग कविता में किया जाना चाहिए। मान लिया कि हमने वजनदार शब्दों वाली कविता को पाठ्यक्रम में शामिल किया। अब सवाल यह है कि क्या बच्चे ऐसी कविता को चाव से पढ़ेंगे ? मैं कह रहा हूँ बिल्कुल नहीं। यदि ऐसा होता तो शिक्षा के मापदंड बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। वही लट्ठमार या मुक्कामार शिक्षक आज भी पढ़ा रहे होते और बच्चों को कूटकूटकर रटाया जा रहा होता। आज संस्कृत भाषा की क्या हालत हो गई है ! जटिलता के कारण ! भाषाओं के संदर्भ में आप कहीं भी देख लीजिए। बौद्धिक भाषाओं ने किताबों में राज किया, लेकिन लौकिक भाषाओं ने जनता के दिलों में। तो लोकप्रचलित साधारण शब्दों का प्रयोग कविता में क्यों नहीं किया जाना चाहिए, जबकि पढ़ने वाला बच्चा कक्षा 1 का हो ! 5-6 वर्ष का हो।
यह एक ऐसा दौर है जब हमारे मन में शिक्षा के संदर्भ में अनेक प्रश्न उठते रहते हैं। आज के अभिभावकों व शिक्षकों की एक प्रमुख समस्या यह है कि बच्चे किताब पढ़ते नहीं हैं ? मुझे लगता कि ऐसा नहीं है। बच्चे किताब पढ़ते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम बच्चों की पसंद का खयाल रख रहे हैं या नहीं। वो बच्चे ही हैं जिन्होंने इंग्लैंड की एक साधारण सी लड़की जे.के.रोलिंग को विश्व की सबसे संपन्न लेखिका बना दिया है। उनकी हैरी पॉटर सीरिज की पुस्तकें बच्चों में कितनी लोकप्रिय हुईं यह जगजाहिर है।
यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे किताब पढ़ें, अपने स्कूल से प्यार करें। तो हमें उनकी पसंद का ध्यान रखना पड़ेगा। उनके आसपास प्रयुक्त होने वाले शब्दों से सुसज्जित कविताएँ, कहानियाँ उन्हें परोसनी होंगी। पाठ्यक्रम को बोझिल नहीं बल्कि सुगम, सुरूचिपूर्ण व ग्राह्य बनाना होगा। एन.सी.एफ-2005 भी यही करने को कहता है। हो सकता है इन रचनाओं में कई शब्द ऐसे भी होंगे, जो लोक में स्वीकार्य नहीं होंगे, किंतु हमें उन शब्दों को परोसने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, जब तक बच्चे उसका कोई गलत अर्थ न निकालें और संबंधित रचना में वह सही अर्थों में प्रयुक्त हुई हो। यह अच्छी बात है कि इस कविता के बहाने हमें शब्दों पर सार्थक चर्चा करने का मौका मिला है।
3. शब्द, उसके अर्थ व उसकी अस्मिता को बचाने वाली कविता-
मैंने पिछले आलेख में भी लिखा था कि इस कविता में आये छोकरी शब्द पर अधिकांशतः सवाल उठाये जा रहे हैं। छोकरी शब्द लोकभाषा का शब्द है। ब्रजभाषा में छोरा, छोरी शब्द बहुतायत में प्रयुक्त होते हैं, जो शैशवकालीन लड़का, लड़की के समानार्थी हैं। इसी तरह छोकरी शब्द भी शैशवकालीन लड़की के लिए प्रयुक्त होने वाला एक खूबसूरत शब्द है। छोरी, छोकरी, छोकड़ी, छ्योड़ि, छ्वोरी, लड़की सब पर्यायवाची शब्द हैं। हिंदी की सभी डिक्शनरियों में छोकरी या छोकड़ी का अर्थ ‘लड़की’ बताया गया है। अगर यह शब्द इतना वर्जित होता तो इस शब्द का कुछ और अर्थ भी शब्दकोशों में जरूर मिलता।
और खास बात यह है कि इस कविता में कवि ने ‘छोकरी’ शब्द को छोटी लड़की के संदर्भ में ही लिया है। जैसाकि कुछ लोग इस शब्द को फीमेल के विरूद्ध यानि हेय दृष्टि युक्त बता रहे हैं यानि उनके अनुसार ‘छोकरी’ दुष्ट लड़की, बदमाश लड़की, शैतान लड़की, आवारा लड़की आदि के भाव में प्रयुक्त होता है। ठीक है यह बात मान लेते हैं। अब जरा कविता के भाव को देखते हैं- छह साल की दुष्ट /बदमाश/शैतान/आवारा लड़की टोकरी में आम भरकर लाती है। क्या कभी दुष्ट /बदमाश/शैतान/आवारा लड़की टोकरी में आम भरकर लाती है ? टोकरी में आम भरकर तो मेहनती लड़की लाती है… यानि कविता के भावों के हिसाब से भी छोकरी शब्द के नकारात्मक अर्थ नहीं निकलते। अत: छोकरी शब्द पर प्रश्न खड़े करना भी निरर्थक ही सिद्ध होता है।
हमने ऊपर भी कहा है कि छोकरी, छोरी शब्द का ही समानार्थी शब्द है। जब छोरी और छोरा शब्द सम्मानजनक अर्थ में प्रयुक्त होते हैं तो छोकरा और छोकरी भी सम्मानजनक अर्थ में ही प्रयुक्त किये जाने चाहिए। ब्रज भाषा के भजनों तक में छोरा/छोरी शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं। कुछ उदाहरण मैं नीचे दे रहा हूँ जिनमें छोरा/छोरी शब्दों का श्रीकृष्ण व राधा के लिए प्रयोग किया गया है-
1. मैं बरसाने की छोरी ना कर मुझसे बरजोरी।
2. राधा बरसाने की छोरी, बंधी प्रीत की डोरी।
3. वो नटखट नन्द किशोरा, छलिया गोकुल का छोरा।
4. तू नंद गाँव का छोरा, मन का बड़ा छिछोरा।
अब मैं कुछ गीतों के उदाहरण भी आपके समक्ष रखूंगा-
1. मैं बंगाली छोकरा…. मैं मद्रासी छोकरी ( फिल्म रागिनी)
2. छोरा गंगा किनारे वाला (डॉन फिल्म)
3. तू गुर्जर की छोकरी (राजस्थानी गीत)
4. ऐ छोरा.. ऐ छोरी… ( छलपट्टी, गढ़वाली गीत)
5. ऐ छोरी… ( चैता की चैत्राची, गढ़वाली गीत)
6. छोरी जेल करावेगी ( हरियाणवी गीत )
7. सुण छोरिए ( हिमांचली गीत)
आज हम केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक प्रदूषण के दौर से भी गुजर रहे हैं। ऐसे समय में हम शब्दों के सही अर्थ खोते चले जा रहे हैं। इस कविता ने ‘छोकरी’ जैसे सुकोमल शब्द को न सिर्फ बचाया है, बल्कि उसके अर्थ व उसकी अस्मिता की भी रक्षा की है।
4. विभिन्न विमर्शों को जन्म देने वाली कविता-
4.1 बाल मजदूरी को नहीं बल्कि मित्रता व सहकारिता की भावना को बल देने वाली कविता है-
कुछ लोग इस कविता पर बाल मजदूरी/बाल श्रम के प्रोत्साहन का आरोप लगा रहे हैं। यह आरोप भी दमदार प्रतीत नहीं होता है। इसका कारण यह है कि कवि ने कविता में कहीं पर भी यह नहीं कहा है कि छोकरी आम बेच रही है,। हाँ, उसने यह जरूर कहा है कि छोकरी दाम नहीं बताती है। अब चूंकि छोकरी आम बेच ही नहीं रही तो वह दाम क्यों बताएगी ?
बाल मजदूरी या बाल श्रम की बात तब आती जब लड़की किसी मजबूरी या दबाव में आम बेचती दर्शायी गई होती। यहाँ तो छोकरी अपने सहपाठियों, दोस्तों, सहेलियों को आम दे रही है/बांट रही है। यानि यह वह अपने आनंद /अपनी खुशी के लिए बिना दबाव के स्वेच्छा से कर रही है। अब ऐसे में तो बाल मजदूरी/बाल श्रम को प्रोत्साहित करने का प्रश्न ही नहीं उठता। दरअसल में यह कविता तो ‘मित्रता व सहकारिता’ की भावना को बल देने वाली कविता है, न कि बाल मजदूरी को।
4.2 जेंडर विशेष विरोधी नहीं है कविता-
कुछ लोग कविता पर ‘जेंडर पॉर्शीऐलिटी’ यानि इस कविता को फीमेल के खिलाफ होने का आरोप भी लगा रहे हैं, जबकि कविता में न फीमेल के खिलाफ कोई शब्द है और न ही कोई इस तरह का भाव-प्रदर्शन। यह कविता यद्यपि फीमेल के प्रति रची गई है, लेकिन क्या इस कविता को मेल ही पढ़ेंगे ? नहीं। बिल्कुल नहीं। मेल-फीमेल दोनों पढ़ेंगे। इस कविता के सबसे बड़े पाठक बच्चे हैं। इसीलिए वो तय करेंगे कि कविता कैसी है ! अगर बच्चों ने 14 वर्षों तक कविता को बड़े चाव से पढ़ा है तो भविष्य में भी वे इसे इसी चाव से पढ़ते रहेंगे। मुझे लगता है कि बच्चों के संदर्भ में हमें बहुत अधिक ज्ञानी बनने की जरूरत नहीं, बल्कि व्यावहारिक बनने की जरूरत है। हम घर में गुटखा, सुर्ती खाते रहते हैं और बच्चों को इनसे होने वाली हानियों से संदर्भित कितनी ही महान रचनाएँ पढ़ाएं फर्क नहीं पड़ेगा। वह उनके लिए बोझिल ही बनता जायेगा। ये रचनाएँ तभी प्रभावी होंगी जब हम गुटखा, सुर्ती खाना बंद करेंगे। यदि हम बच्चों को सही अर्थ सिखायेंगे तो वह सही अर्थ ही ग्रहण करेंगे। बच्चे हमारी तरह घटिया सोच नहीं रखते। वे हमारा ही अनुकरण करते हैं। यह हमारी विफलता ही है कि हम अपनी विकृत मानसिकता से बच्चों को नहीं बचा पा रहे हैं।
5. बाल साहित्य के महत्व को दर्शाने वाली कविता-
अधिकांशतः देखने में आता है कि समाज में बालसाहित्य को कमतर आंका जाता है, लेकिन इस कविता ने लोगों को बता दिया है कि बाल साहित्य का कितना महत्व है। बाल साहित्य को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। बाल साहित्य व बाल साहित्यकारों दोनों को ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। यदि हमें देश को सम्पन्न बनाना है तो बुद्धिजीवियों की पहचान करनी ही होगी और उन्हें यथोचित सम्मान देना ही होगा। मैंने कई टिप्पणियां ऐसी भी पढ़ीं, जिनमें कहा गया है कि क्या इस विषय के भी विशेषज्ञ होते हैं ?
महोदय, बाल कविता लिखना मजाक नहीं है। किसी रची हुई कविता की ‘मिमिक्री’ करना आसान होता है। नई रचना करना आसान काम नहीं है। और न ही पाठ्यक्रम बनाना आसान कार्य है। पाठ्यक्रम से हटाओ कहना आसान काम है। इस कविता की चर्चा के बाद मैंने ‘रिमझिम’ की सभी रचनाएँ पढ़ीं और एनसीईआरटी की निम्न टिप्पणी को पूरी तरह से खरा उतरता पाया-
“एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक में दी गई कविताओं के संदर्भ में: एन.सी.एफ-2005 के परिप्रेक्ष्य में स्थानीय भाषाओं की शब्दावली को बच्चों तक पहुँचाने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ये कविताएं शामिल की गई हैं ताकि सीखना रुचिपूर्ण हो सके।” यकीनन स्थानीय शब्दावलियों से सुसज्जित बहुत ही रूचिकर और बालमन के अनुरूप रचनाएँ पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं।
6. भविष्य के पाठ्यक्रम की मार्गदर्शक कविता-
एनसीईआरटी का कहना है कि –
“राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के परिप्रेक्ष्य में नई राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। इसी पाठ्यचर्या की रूपरेखा के आधार पर भविष्य में पाठ्यपुस्तकों का निर्माण किया जाएगा।”
मुझे लगता है कि इस कविता से जन्मी बहसों से लोकभावना को ध्यान में रखा जाय तो आगामी पाठ्यपुस्तकों में बहुत कुछ बदलाव देखने को मिलेगा।
7. शब्द व शब्दकार की सामर्थ्य का एहसास कराने वाली कविता-
इस कविता के रचनाकार के लिए ‘सड़कछाप’ जैसी संज्ञा का प्रयोग किया गया है। इस शब्द से रचनाकार (शब्दकार) की गरिमा घटने के बजाय बढ़ी ही है। आज यह कविता पूरे देश में पढ़ी जाती है और लेखक के नाम से भी वो सब परिचित हो गए हैं, जो उन्हें अब तक नहीं जानते थे। कवि रामकृष्ण शर्मा खद्दर जहाँ भी होंगे उन्हें, तोष प्राप्त हो रहा होगा। आखिर उनका लिखना सार्थक हुआ, क्योंकि बड़े बड़े ‘बंग्लाछापों’ के भीतर के स्याह अंधेरे को इसने बाहर उड़ेलकर रख दिया है। इसने बता दिया है कि हमारा अभिजात्य वर्ग लोकभाषाओं के प्रति कैसी दृष्टि रखता है ? अभिजात्य ही नहीं बल्कि मध्यम वर्ग भी इस मामले में कम नहीं है। हम गरीब आदमी के उत्थान की बात करते हैं किंतु हम गरीब (उपेक्षित) किंतु अच्छे शब्दों को उचित सम्मान दिलाने की बात पर नाक-भौं क्यों सिकोड़ते हैं ? कुल मिलाकर शब्द और शब्दकार की सामर्थ्य का एहसास कराया है इस कविता ने।
बड़ा सवाल- क्या हम इस कविता के बहाने और भी महत्वपूर्ण बहसों को जन्म दे पायेंगे ?
अच्छी बात है कि हम इस कविता के माध्यम से पाठ्यक्रम पर बहस कर रहे हैं। शब्दों पर चर्चा कर रहे हैं। अब देखना यह है कि हमारे आई ए एस ‘संघ लोक सेवा आयोग’ (IAS) की परीक्षा में हिंदी की दुर्गति पर कब प्रश्न उठाते हैं ? सिविल सेवाओं में आखिर हिंदी माध्यम से चयनित होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या इतनी कम क्यों है ? क्या हिंदी अपने ही देश में उपेक्षित नहीं है ? क्या हिंदी अभिजात्य वर्ग की भाषा बन पाई है ? क्या हम देश की लोकभाषाओं को उचित सम्मान दे पाये हैं ? मरती हुई लोकभाषाओं को बचाने के लिए हमारी क्या कोशिशें हैं ? या हम अंगरेजी व अंगरेजीपरस्त मानसिकता के ही हिमायती बनकर रह गये हैं ?? जब चीन, जापान जैसे राष्ट्र अपनी भाषा को उचित सम्मान दे पाये हैं, आखिर हम भारतीय आजादी के इतने सालों बाद भी क्यों नहीं हिंदी को वह स्थान दिला पाये, जिसकी वह हकदार है ?
यद्यपि एक बाल कविता की सफलता यहीं पर तय हो जाती है कि बच्चे उस बाल कविता को कितना पसंद कर रहे हैं, किंतु इस कविता के संदर्भ में थोड़ा आगे की बात करूंगा। इस कविता ने आज पंगु होती मनुष्य की विचारधारा को उधेड़कर रख दिया है। यही इस कविता की क्षमता व अभूतपूर्व सफलता है। जरूरी नहीं कि श्रेष्ठ कविता श्रेष्ठ एवं महान आदर्शों की ही प्रतिस्थापक हो। श्रेष्ठ कविता वह भी है, जो हमें उद्देलित करे। भीतर से जगाए। हमें सोचने को विवश करे। और एक बार फिर इस कविता ने हमें अपने भीतर झांकने को विवश कर दिया है। ममता कालिया जी कहती हैं कि यह एक Bed poetry का उदाहरण है, लेकिन मैं कहता हूँ यह Best poetry का उदाहरण है।
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बहुत बढ़िया जानकारी 🙏🙏