प्रेम की होली
प्रेम की होली
होली पर गांव- बाजार का माहौल गरमाया हुआ था। जहाँ- तहाँ रंग से पुते होल्यार ही होल्यार नजर आ रहे थे। होली है- होली है की ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो रहा था। राजेश, मदन और राहुल भी अपनी- अपनी पिचकारी से लोगों को भिगा रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि उनका सहपाठी कैलाश बाजार से सामान लेकर आ रहा है और उसके चेहरे पर रंग का नामोनिशान तक नहीं लगा है। तब सभी ने मिलकर कैलाश को रंग लगाने की योजना बनाई और राजेश ने चुपके से उसके पीछे आकर उसके चेहरे पर रंग मल दिया। उसके साथ ही मदन और राहुल भी उस पर टूट पड़े। बेचारा कैलाश अकेला था। खुद को बचाने के सिवा और क्या करता लेकिन दुर्भाग्य से वह खुद को बचा न सका और रंग उसकी आंखों में चला गया। वे तीनों तो होली है-होली है चिल्लाते हुए भाग गये किंतु कैलाश जैसे- तैसे घर पहुँचा और उसने उन तीनों की शिकायत अपने पिताजी से कर दी। शाम को कैलाश के पिताजी ने उन तीनों को घर बुलाकर समझाते हुए कहा- “बेटा, होली रंगों का त्योहार है। हमें एक दूसरे को रंग लगाना चाहिए, लेकिन ऐसे कि जिससे हमारे बीच मनमुटाव न हो। एक-दूसरे के लिए नफरत पैदा न हो। मेरे कहने का मतलब यह है कि हमें सिर्फ होली नहीं खेलनी चाहिए बल्कि प्रेम की होली खेलनी चाहिए।”
© Dr. Pawanesh
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Pawan Sir
डॉ० पवनेश उत्तराखंड के बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न युवा हैं। ये शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। हिंदी और कुमाउनी दोनों मातृभाषाओं से इन्हें विशेष लगाव है। ये शिक्षण कार्य से जुड़े हैं और हिंदी और कुमाउनी में 22 से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पीएचडी उत्तीर्ण पवन सर ने पत्रकारिता में भी डिप्लोमा हासिल किया है।