कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

हमसाया

            हमसाया

“तुम ! यहाँ भी।”

“हाँ, बिल्कुल ! जहाँ तुम, वहाँ मैं।”

“अच्छा, ऐसा है क्या ?”

” बिल्कुल, तुम्हारा हमसाया जो हूँ।”

“चुप पागल !”

और ऐसा कहते ही वह खिल उठी। सूरजमुखी नहीं थी वह और न था वह सूरज, फिर भी न जाने क्यों उसके आते ही वह खिल उठती थी और उसके खिलते ही मौसम बसंत हो उठता था।

वह कौन थी ? वह थी मीनाक्षी। हाँ, यही नाम था उसका। बिल्कुल मछली जैसी आंखों वाली। यथा नाम तथा गुण। इन्हीं मीन आंखों में पलते थे कई सारे सपने या कहिए सपनों के झुंड। हरे-भरे लाल चोंच वाले तोतों के झुंड के समान या फिर श्वेतवर्णी कबूतरों के झुंड के समान सपने। आसमान में तैरते, गोते लगाते, बादलों के साथ आंख-मिचौली खेलते सपने। इंद्रधनुष के समान रंगीन भविष्य के सपने। इन सपनों को दिखाने वाला वह कोई और नहीं बल्कि वही लड़का था, जो कहा करता था उससे अकसर कि मैं तुम्हारा हमसाया हूँ। तुम्हारे हर दुख-सुख में तुम्हारे साथ रहूंगा, तुम्हारी सांसों की तरह।

प्रेम में विश्वास सबसे बड़ा मूल्य होता है और इसी मूल्य को निभाती हुई वह लड़की भी आंख मूंदकर स्वयं को सौंप देती थी उस लड़के की हथेलियों पर। और इस तरह उस लड़की के सपने महकते थे, उस हमसाये के इर्द-गिर्द। चाहे वह सुबह-सुबह कालेज-कैंपस को जाने वाली सड़क पर हो या दोपहर को लौटते समय विशाल मेगामार्ट से एन. टी. डी. की ओर गुजरने वाली सड़क हो या शाम के समय लाला बाजार की सब्जी-मंडी वाली जगह हो; जहाँ से भी वह गुजरती, वह लड़का उसे जरूर नजर आता। कभी बाइक में तो कभी पैदल ही। यहाँ तक कि वह उसे समय-असमय बाइक में बिठाकर छोड़ आता उसकी मंजिल तक।

शुरूआत में लड़की शरमाती-शकुचाती रही; किंतु कुछ समय बाद लोकलाज को उसने उसी तरह त्याग दिया, जिस तरह से लोंगो ने त्याग दिए हैं लैंडलाइन फोन। वह अब आदी हो चुकी थी उस लड़के के साथ बाइक में बैठने की। बाइक में बैठकर कालेज, घर या बाजार आने-जाने की। इतना ही नहीं वह आदी हो चुकी थी खुशनुमा शामों की और ये शामें रोज अलग-अलग जगहों पर खुशनुमा होतीं। कभी कसारदेवी के किसी चुम्बकीय प्वाइंट पर या फिर किसी महंगे रेस्तराँ में। कभी डोलीडाणा के किसी हरे-भरे घास के मैदान में या फिर किसी पेड़ की छांव के नीचे। कभी अल्मोड़ा शहर से कालीमठ की ओर गुजरने वाली सड़क के किसी बाबा टीले पर या फिर किसी मजनू प्वाइंट पर। और कभी आकाशवाणी के समीप ब्राइट एंड कार्नर पर सूरज को डूबते-उतरते देखते हुए। अकसर सूरज को डूबते-उतरते देखकर लड़की की आंखें नम हो जाती थीं और लड़का यह कहते हुए उसकी आंखों से ढुलकते आंसू पोंछता था कि तुम सिर्फ मुस्कुराती हुई अच्छी लगती हो। तब लड़की को लगता था कि सूरज डूब नहीं रहा, बल्कि उग रहा है और उगता ही रहेगा सदियों तलक। और वह हमेशा बनी रहेगी सूरजमुखी…पूरी खिली हुई…।

यूँ ही कई दिन, हफ्ते और महीने गुजरते चले गये और वह लड़का हमसाया बनकर उसके साथ चलता रहा। गर्मियों के दिन थे। वह लड़की दोपहर की चिलचिलाती धूप में चली आ रही थी कालेज से घर की ओर। लड़का आज उसे लेने नहीं आया। उसे लगा, वह दुनिया में बिल्कुल अकेली है। एकदम अकेली, उस लड़की की तरह जिसका दुनिया में कोई न हो। वह निराश होकर बैठ गई सड़क के किनारे खिले घने छायादार बोगनवेलिया की छांव में। माल रोड पर पोस्ट आफिस के पास खिला बोगनवेलिया कितना खूबसूरत है ! अल्मोड़े की तमाम खूबसूरत चीजों में एक। वह बोगनवेलिया की जड़ पर बने चबूतरे पर बैठकर उसका इंतजार करने लगी। इंतजार में धैर्य की अत्यधिक जरूरत होती है, लेकिन इंतजार करने वाला ही जानता है कि इंतजार के समय धैर्य रखना कितना कठिन होता है। वह कुछ देर देखती रही सड़क पर दौड़ती तमाम बाइकों को, लेकिन वह लड़का उसे कहीं नजर नहीं आया। बोगनवेलिया की ऊंची सघन झाड़ियों से गुलाबी फूल झड़ने लगे। लड़की को आभास हो रहा था कि वह उठ रही है ऊपर की ओर। ऊपर, और ऊपर, और ऊपर… ऊपर स्वर्ग में। वह चली जा रही है। देवता उसका स्वागत कर रहे हैं, फूलों से।

अचानक किसी चिर-परिचित हार्न की आवाज उसके कानों से टकराई और वह एक ही झटके में नीचे उतर आई। लड़का बाइक से उतरकर उसके पास आया- “सारी मीनू, देर हो गई।”

“हूँ ! देर हो गई।” लड़की ने रूठते हुए लड़के की बात रिपीट की।

लड़का खामोश हो गया। वह भी झड़ते हुए बोगनवेलिया के फूलों की ओर देखने लगा। थोड़ी देर तक निस्तब्धता छाई रही। फिर लड़की बोली- “तुम तो सारी से काम चला लिए। मेरी तो जान ही निकल गई थी।”

लड़के ने अपनी दायें हाथ की तर्जनी उसके ओंठों पर रख दी- “जान जब भी निकलेगी, दोनों की साथ ही निकलेगी।”

लड़की फिर से सूरजमुखी हो गई। उसे लगा वे दो जिस्म एक जान हैं। वह लड़का सचमुच उसका हमसाया है।

वक्त बीतता गया। कई मौसम बदले लेकिन ना वह लड़की बदली और ना ही वह लड़का। लड़की सूरजमुखी बनकर खिलती रही और वह लड़का सूरज बनकर उसके खिलने का कारण बनता रहा। आबनूसी अगरबत्ती से दोनों के क्षण महकते रहे। समाज की तमाम बंदिशों को दरकिनार कर दोनों रचते रहे ढाई आंखरों से एक खूबसूरत दुनिया। इस दुनिया में वे उतरते हर दिन अपने खयाली जहाज में सवार होकर। देखते कि वहाँ कितना उजाला है, कितनी रोशनी है। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूल। उन फूलों पर नाचती रंग-बिरंगी तितलियाँ। आस-पास गीत गुनगुनाते भंवरे। हरे-भरे पेड़ और उन पेड़ों पर चहचहाते पक्षी। किसी झील का किनारा और उस किनारे पर खड़ी रंगीन नाव, जिस पर सवार होकर दोनों निकल पड़े हैं एक अंतहीन यात्रा पर… इस दुनिया से बेखबर एक अलग ही दुनिया में। जहाँ किसी तरह का भेदभाव नहीं है। जहाँ किसी के मन में ईर्ष्या-द्वेष नहीं है। जहाँ नफरत का नामोनिशां नहीं है। एक अनौखी दुनिया… सिर्फ प्रेम की दुनिया…।

लड़की अकसर खो जाती इस अनौखी दुनिया में। तब लड़का उससे कहता- “चलो भी, अब कुछ अगले दिन के लिए भी छोड़ दो।”

यह सुनकर लड़की उससे पूछती- “क्या तुम मुझे हमेशा ऐसी ही दुनिया में ले चलोगे ?”

लड़का जबाब देता- “पगली ! यह भी कोई पूछने की बात है ! हर जनम में मैं तुम्हें वहाँ ले चलूंगा।”

यह सुनकर लड़की खिलकर सूरजमुखी बन जाती।

लड़की को पूरा विश्वास था कि यह लड़का उसका हमसाया बनकर हमेशा उसके साथ रहेगा। इसलिए वह जीवन का हर भाग उससे साझा करती, चाहे वह उजला हो या फिर धुंधला। लड़का भी गंभीरता से उसकी बातें सुनता और उसे खुश रखने की यथासंभव कोशिश करता। वह कोशिश करता कि लड़की की मीन आंखें खूबसूरत बनीं रहें, खूबसूरत बने रहें उसके ओठों के गुलाबी कोर और खूबसूरत बना रहे उसका नर्म चेहरा। लड़की को भी उसकी कोशिशों में एक भरा-पूरा बरगद नजर आता, जिसकी छांव तले वह कई सदियाँ गुजारने की हिम्मत रखती थी।

कहते हैं कि वक्त मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु और मित्र है। और इधर वह शत्रु बनकर आया इस लड़की के जीवन में। लड़का कुछ महीनों से उसे कहीं दिखाई नहीं दिया। वह उदास है, हताश है। सूरजमुखी बने उसे महीने बीत गये। वह तो अब कैक्टस बन चुकी है। इस आश में कि वह जरूर आयेगा, वह इंतजार करती रहती है उसका मालरोड पर प्रहरी बने बोगनवेलिया की सघन झाड़ियों के नीचे गोल चबूतरे पर बैठकर। उसकी सुबह, दोपहर और शाम अब वहीं पर बीतती है। सड़क से गुजरने वाले राहगीर कहते हैं कि यह कोई पागल लड़की है, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो बस अपने हमसाये का इंतजार करती रहती है…। शाम ढलते ही वह अपनी बोझिल देह को लेकर निकल पड़ती है, अपने आवास की ओर। सड़क के दोनों ओर अपनी थकी आंखों को दौड़ाते हुए। ऐसा करते हुए उसे पूरे दो बरस बीत गये, लेकिन उसे उसका हमसाया कहीं नजर नहीं आया।

जब से वह लड़का गायब हुआ है उस लड़की की जिंदगी से, तब से लड़की की पूरी-की-पूरी दुनिया ही बदल गई है। उसे अब कालेज वीरान नजर आता है। सड़कें मुंह चिढ़ाती दिखती हैं। फूल उसे काट खाने को दौड़ते हैं। यहाँ तक कि अपने कमरे की दीवारें उसे नरक की सीढ़ियाँ नजर आती हैं। उसे कभी-कभी लगता है कि अब जीवन में कुछ नहीं रहा, इसलिए जीने से क्या फायदा ! वह घर पर होती है तो रस्सी गले में डालकर लटक जाना चाहती है। वह पहाड़ पर होती है तो वहाँ से नीचे कूद जाना चाहती है। वह सड़क पर होती है तो चलती गाड़ी के आगे खड़ी हो जाना चाहती है।

उसे लगता है कि मृत्यु दुनिया की सबसे सुंदर चीज है, लेकिन उसके मन में जलती एक उम्मीद की लौ उसे यह सब करने से रोकती है कि शायद आज नहीं तो कल वह जरूर आयेगा।

प्रतीक्षा, प्रतीक्षा और केवल प्रतीक्षा। अब यही वाक्य उसके जीवन का ध्येय था। अपने इसी ध्येय की प्राप्ति हेतु एक दिन वह लड़की बैठी हुई थी, माल रोड के उसी बोगनवेलिया की जड़ों पर बने चबूतरे पर। उसकी थकी निगाहों ने एक बाइक को रूकते हुए देखा। उस बाइक से एक लड़का और लड़की उतरते हुए दिखे और वे उतरते ही उसी बोगनवेलिया की जड़ों पर बने दूसरे चबूतरे पर बैठ गये। लड़के के साथ बैठी लड़की की मांग में सिंदूर भरा था। कैक्टस बनी लड़की ने तुरंत लड़के को पहचान लिया था। यह वही लड़का था जो कभी उसका हमसाया बना फिरता था। लड़की को लगा कि कोई दैत्य उसका गला दबाये जा रहा है…। बोगनवेलिया की लंबी-घनी झाड़ियों से गुलाबी फूल झड़ रहे थे। लड़की को लगा कि वह ऊपर उठी जा रही है। ऊपर, और ऊपर, एकदम ऊपर……सबसे ऊपर..क्योंकि इस बार उसे नीचे उतारने वाला कोई नहीं था……….।

 

© Dr.  Pawanesh

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