कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

लोकपर्व खतड़ुवा: पशुधन की समृद्धि का पर्व है ना कि किसी राजा की विजय का।

लोकपर्व खतुड़वा: पशुधन की समृद्धि का पर्व है ना कि किसी राजा की विजय का

     कुमाऊँ में लोक और जनमानस की समृद्धि की कामना हेतु अनेक पर्व मनाये जाते हैं। इन्हीं लोकपर्व में एक पर्व है खतड़ुवा।

   

     खतुड़वा पर्व यद्यपि पशुधन की समृद्धि की कामना हेतु मनाया जाता है, लेकिन इस पर्व से जुड़ी कुछ भ्रांतियों ने इस पर्व के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। यहाँ तक की लोक साहित्य और संस्कृति से जुड़ी तमाम पुस्तकों में भी यह भ्रामक जानकारी मौजूद है। इस भ्रामक जानकारी को प्रचारित करने में ‘उतारू’ और ‘छापू’ प्रवृत्ति के लेखकों ने अपना महती योगदान दिया, लेकिन यह जानकारी कुछ इसी तरह की है जैसी लोककथाओं में होती है, यानिकि अधिकांशतः काल्पनिक और अप्रामाणिक।

      कुछ विद्वान मानते हैं कि यह पर्व कुमाऊँ की सेना द्वारा गढ़वाली सेना पर विजय का प्रतीक है। उनका मानना है कि सन् 1592 में हुए युद्ध में कुमाउनी सेना का नेतृत्व गैड़ा सिंह ने किया और गढ़वाली सेना का नेतृत्व खतड़ सिंह ने किया जिसमें खतड़ सिंह की पराजय हुई। तब कुमाऊं के लोगों ने खतड़ सिंह का पुतला जलाकर खुशी मनाई और तभी से यह त्योहार खतड़ू त्योहार के रूप में मनाया जाता है। खतड़ सिंह का पुतला जलाकर खतड़ू त्योहार मनाना निरा तर्कहीन और हास्यास्पद है। यह इसलिए भी कि जिस तरह से लोक में यह त्योहार मनाया मनाया जाता है, वह कहीं भी इस कल्पित कथा से मेल नहीं खाता है।

        इधर कुछ विद्वान इसी कथा को कुछ तरह से कहते हैं। आश्विन माह की संक्रांति के दिन सन् 1592 में कुमाऊँ के राजा लक्ष्मी चंद ने गढ़ राज्य ( गढ़वाल ) के सेनापति खड़क सिंह को परास्त कर विजय दिवस मनाया था। उस समय अल्मोडा़ तक विजय संदेश पहुँचाने के लिए हर पहाड़ की चोटी पर आग जलाई गई, जिससे कुछ ही समय में विजय संदेश अल्मोडा़ तक पहुँच गया था। इस जीत की खुशी में गौ भक्त राजा ने हजारों गायें दान कीं और एक शिव मंदिर का निर्माण कराया, जो आज अल्मोड़ा शहर में लक्ष्मेश्वर नाम से जाना जाता है।

       यह कथा भी पहली कथा की तरह ही है। इस कथा का स्वरूप भी खतड़ुवा पर्व के मूल स्वरूप से कहीं मेल नहीं खाता है। हर पहाड़ की चोटी में आग जलाकर विजय संदेश फैलाने वाला प्रसंग भी नितांत अव्यवहारिक दीखता है।

         इधर जो बात सबसे अधिक प्रमाणिक और सत्य प्रतीत होती है, होती है नहीं बल्कि है, वह यह कि खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति ‘खातड़’ या ‘खातड़ि’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है रजाई या अन्य गरम कपड़े। गौरतलब है कि भाद्रपद की शुरुआत (सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में जाड़ा धीरे-धीरे शुरु हो जाता है। यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं। इस तरह यह लोकपर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का परिचायक है। इस त्यौहार के दिन गांवों में लोग अपने पशुओं के गोठ (गौशाला) को विशेष रूप से साफ करते हैं। पशुओं को नहला-धुला कर उनकी सफाई की जाती है और उन्हें पकवान बनाकर खिलाया जाता है। पशुओं के गोठ में मुलायम घास बिखेर दी जाती है। शीत ऋतु में हरी घास का अभाव हो जाता है, इसलिये ‘खतड़ुवा’ के दिन पशुओं को भरपेट हरी घास खिलायी जाती है। शाम के समय घर की महिलाएं खतड़ुवा (एक छोटी मशाल) जलाकर उससे गौशाला के अन्दर लगे मकड़ी के जाले वगैरह साफ करती हैं और पूरे गौशाला के अन्दर इस मशाल (खतड़ुवा) को बार-बार घुमाया जाता है और भगवान से कामना की जाती है कि वो इन पशुओं को दुख-बीमारी से सदैव दूर रखें। गांव के बच्चे किसी चौराहे पर जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाते हैं। गौशाला के अन्दर से मशाल और बिच्छू घास लेकर महिलाएं भी इस चौराहे पर पहुंचती हैं और इस लकड़ियों के ढेर में ‘खतड़ुआ’ समर्पित किये जाते हैं। ढेर को पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानकर ‘बुढ़ी’ ( कई प्रकार की घास से बनाई गई आकृति ) जलायी जाती है। यह ‘बुढ़ी’ गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक मानी जाती हैं, जिनमें खुरपका और मुंहपका जैसे रोग मुख्य हैं। इस चौराहे या ऊंची जगह पर आकर सभी खतड़ुआ जलती बुढ़ी में डाल दिये जाते हैं और बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं-

“भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा,

गै की जीत, खतडुवै की हार,

भाग खतड़ुवा भाग।”

अर्थात् गाय की जीत हो और खतड़ुआ (पशुधन को लगने वाली बिमारियों) की हार हो..।

        खतड़ू जलाने के बाद सभी को ककड़ी खिलाई जाती है और माथे पर राख और ककड़ी का मिश्रित टीका लगाया जाता है।

 

         अतः स्पष्ट रूप से दीखता है कि इस पर्व का संबंध इतिहास से नहीं बल्कि लोक से है। इस पर्व को मनाने का तरीका स्वयं में स्पष्ट करता है कि यह पर्व पशुओं की मंगलकामना के लिये मनाया जाने वाला पर्व है, न कि किसी ऐतिहासिक राजा की जीत के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला पर्व है। आप यदि गाँव के इस त्योहार को मनाने वाले लोगों के बीच जायेंगे तो पायेंगे कि उन्हें इतिहास की कथा मालूम नहीं है, लेकिन यह पता है कि इस दिन वे जानवरों के निरोगी रहने और स्वस्थ रहने की कामना करते हैं।

        कुमाऊं के सेनापति गैड़ सिंह द्वारा गढ़वाल के सेनापति खतड़ सिंह (खतड़ुवा) को हराने जैसी तर्कहीन मान्यता अब पूर्ण रूप से अप्रमाणित सिद्ध हो चुकी है। नवीन इतिहासकार उत्तराखण्ड के इतिहास में गैड़ सिंह या खतड़ सिंह जैसे व्यक्तित्व की उपस्थिति और इस युद्ध की सच्चाई को पूर्णतया नकार चुके हैं। गैड़ सिंह और खतड़ सिंह के मध्य हुए काल्पनिक युद्ध की घटना का उल्लेख गढ़वाल या कुमाऊं के किसी ऐतिहासिक वर्णन में नहीं है। यहाँ तक कि उत्तराखण्ड का सबसे प्रमाणिक इतिहास एटकिंसन के गजेटियर को माना जाता है, क्योंकि उन्होंने ही पूरे उत्तराखण्ड में घूमकर इसकी रचना की थी। यदि ऐसा कुछ होता तो उन्होंने इसका भी वर्णन जरुर किया होता, जबकि एटकिंसन के इतिहास में गैड़ सिंह और खतड़ सिंह का कहीं उल्लेख तक नहीं है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि पूरे विश्व के इतिहास में आज तक कोई ऐसा युद्ध नहीं हुआ, जिसमें जीत या हार का श्रेय किसी सेनापति को दिया गया हो। हमेशा ही युद्ध की जीत या हार का श्रेय सिर्फ और सिर्फ राजा को ही मिला है।

        कुमाउनी के प्रसिद्ध कवि श्री बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ की ‘सिसोंण’ संग्रह की कविता की कुछ पंक्तियां इस सन्दर्भ में दृष्टव्य हैं-

“अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं, खतड़सिंग न मिल, गैड़ नि मिल।

कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै, जागर लगै,

बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों, भारत सुणों, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल,

स्याल्दे-बिखौती गयूं, देविधुरै बग्वाल गयूं, जागसर गयूं, बागसर गयूं,

अलम्वाड़ कि नन्दादेवी गयूं, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।”

अर्थात् इतिहास की तमाम किताबें पढ़ी, लोक में गया लेकिन खतड़सिंह और गैड़ सिंह कहीं नहीं मिले।

       निष्कर्ष रूप में यही कह सकते हैं कि हमें अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं और धरोहरों को कल्पित घटनाओं से नहीं जोड़ना चाहिए। खतड़ुआ, हरेला जैसे पर्व हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। अतः हमारा दायित्व है कि संस्कृति से जुड़ी भ्रामक कथाओं को हम प्रचारित-प्रसारित न करें और संस्कृति के मूल की रक्षा करें। अन्यथा सांस्कृतिक पतन के इस दौर में हम अपनी अमूल्य सांस्कृतिक विरासतों से हाथ धो बैठेंगे।

© Dr. Pawanesh

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