कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा

भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा 

 

अंबर देखा, बादल देखे

तारों का उन्माद देखा

भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा।

 

पानी के बुलबुले-सी उसकी हंसी

धीरे से मेरे कानों में धंसी

कुछ ही पलों बाद मैंने

अरमानों का झुंड टहलता आबाद देखा।

भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा।

 

सिक्के के गिरने सी उसकी आवाज

खींच रही है मुझको अभी उसके पास

आज वह सामने खड़ी लगती है मुझको

जिसको स्वप्न में मैंने कभी साथ देखा।

भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा।

 

गुलाब के खिलने सी उसकी मुस्कान

दिला रही मुझको अपनी पहचान

न चाहकर भी यारो उसका होने लगा हूँ

जब से मन मंदिर में घूमता उसे आजाद देखा।

भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा।

 

मैं पागल बल्लियाँ उछलने लगा

ढाई आखर लिखने को मचलने लगा

रटने लगा उसके नाम को अपना समझकर

जब से उसके हाथ में मैंने अपना हाथ देखा।

हां, भरी दुपहरी में मैंने इक चांद देखा।

 

© Dr Pawanesh

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