कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ का काव्य संग्रह: जैंता एक दिन तो आलो

गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ का काव्य संग्रह: जैंता एक दिन तो आलो

कविता संग्रह के विषय में-

जैंता एक दिन तो आलो

    ‘जैंता एक दिन तो आलो’ कवि गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ का काव्य संकलन है। इस संकलन का पहला संस्करण वर्ष 2011 में पहाड़ प्रकाशन, नैनीताल से हुआ है। यह काव्य संग्रह दो खंडों में विभाजित है। इस काव्य संग्रह के पहले खंड में गिर्दा की कुल 142 हिंदी कविताएँ संगृहीत हैं और दूसरे खंड में गिर्दा की कुल 38 कुमाउनी कविताएँ संगृहीत हैं। गिर्दा की कविताओं और गीतों की विशेषता यह है कि इनके गीतों एवं कविताओं ने पहाड़ की पीड़ा को व्यक्त तो किया ही साथ ही, बल्कि सामाजिक- सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए किये गए आंदोलनों जैसे उत्तराखंड आंदोलन, चिपको आंदोलन आदि के समय जन जागरण का कार्य भी किया। इनकी हिंदी और कुमाउनी दोनों ही भाषाओं की कविताएँ समकालीन समाज एवं संस्कृति का निरूपण तो करती ही हैं, साथ ही वो तत्कालीन राजनीति परिस्थितियों का भी सम्यक् उद्घाटन करती हैं। इस पुस्तक में संकलित गिर्दा के कुछ लोकप्रिय गीत निम्न हैं-

1. जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा। 
जहाँ न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा। ( पृ०144) 

2. एक तरफ बर्बाद बर्बाद बस्तियाँ- एक तरफ हो तुम। 
एक तरफ डूबती कश्तियाँ- एक तरफ हो तुम। ( पृ०192) 

3. सौंणें की सांस अगास खरै रौ, ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
छानी- खरीकन में धूं लगै रौ, ओ हो रे ओ दिगौ लाली।(240) 

4. जैंता एक दिन तो आलो, 
उ दिन यो दुनी में (पृ० 246)

5. उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि मेरी पितृभूमि। 
ओ भूमि तेरि जै जै कारा, म्यार हिमाला। (पृ० 248)

6. आज हिमाल तुमनकै धत्यूछो
जागो जागो हो मेरा लाल। (पृ०286) 

7. हम लड़ते रयां भूलू, हम लड़ते रूलो। ( पृ० 288) 

   गिर्दा का एक गीत- ततुक नी लगा उदेख

घुनन मुनई नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में।1। 

जै दिन कठुलि रात ब्यालि
पौ फाटला कौ कड़ालो
जैंता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में।2। 

जै दिन चोर नी फलाल
कैके जोर नी चलौल
जैंता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में।3।

जै दिन नान-ठुलो नि रौलो
जै दिन त्योर-म्यरो नि होलो
जैंता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में।4। 

चाहे हम नि ल्यै सकूं
चाहे तुम नि ल्यै सको
मगर क्वे न क्वे त ल्यालो, उ दिन यो दुनी में।5। 

वि दिन हम नि हुंलो लेकिन
हमलै वी दिनै हुंलो
जैंता एक दिन तो आलो, उ दिन यो दुनी में।6। 

रचनाकार के विषय में-

   गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ 

      गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ का जन्म 9 सितंबर, 1945 को अल्मोड़ा के ज्योली (हवालबाग) गांव में हुआ था। आपके पिता का नाम हंसादत्त तिवाड़ी और माता का नाम जीवंती तिवाड़ी था। आपने इंटरमीडिएट तक की शिक्षा प्राप्त की थी। आपको आजीविका चलाने के लिए क्लर्क से लेकर वर्कचार्जी तक का काम करना पड़ा। धीरे-धीरे आपने उत्तराखंड के समाज और संस्कृति के लिए कार्य करना प्रारंभ किया। 

         आप आजीवन हिमालय से जुड़े रहे और अपनी कविताओं में लोकजन की पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति दी। आपने अपने गीतों के जरिये जन आंदोलनों में क्रांति का बिगुल फूंका। जन आंदोलनों में सक्रिय रहने के कारण आप कई बार जेल भी गये।गिर्दा ने अन्धायुग, अंधेरी नगरी, थैंक्यू मिस्टर ग्लाड, भारत दुर्दशा आदि नाटकों का निर्देशन किया। ‘नगाड़े खामोश हैं’ तथा ‘धनुष यज्ञ’ नाटक आपके मौलिक नाटक हैं। 

     गिर्दा ‘शिखरों के स्वर’ (1969), ‘हमारी कविता के आँखर’ (1978) के सह लेखक तथा ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (1999) के संपादक हैं तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (2002) के रचनाकार हैं। आपने ‘झूसिया दमाई’ पर भी कार्य किया। गिर्दा’ का निधन 22 अगस्त, 2010 को हल्द्वानी में स्वास्थ्य खराब होने के कारण हुआ। 

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