कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

एक फौजी की प्रेम कहानी

 एक फौजी की प्रेम कहानी

मुझे भरोसा है अपने ईष्ट देव पर। वो एक दिन जरूर वापस आयेंगे। कुमाऊँ रेजिमेंट में भर्ती हुए अभी उनको पूरे ढाई साल भी नहीं हुए हैं और आर्मी वाले कहते हैं कि गायब हो गये ! अरे भाई, ऐसे ही गायब हो जाता कोई सेना से।

राजू की ड्यूटी कश्मीर बार्डर में लगे अभी दो ही महीने तो हुए थे और ऐसी अनहोनी हो गई। पता नहीं कहां होंगे वो ? जाने किस हाल में होंगे ? भगवान करे जहाँ भी हों सुरक्षित हों। एक हफ्ते से लापता हैं, लेकिन अभी तक कोई खोज-खबर नहीं। सिपाही को कौन पूछे ! कोई नेता-अफसर होते तो अमरीका से भी खोज लाते। गरीब को कौन पूछे ! कित्ती बार मेजर सैप से कहा, पता लगा दियो सैप, पता लगा दियो हमारे पतिदेव का। सैप ज्यू कहते हैं, हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं। अब कोई मेजर सैप को बता दियो कि अगर कोशिश मन लगाकर की जाय तो वो सफल भी तो होती है ! अब मेरी समझ नहीं आ रहा है कि मत मेरी मारी गई है या इन अफसरन की।

अब बिचारे इन अफसरन का क्या दोष ! बजर तो हमारी ही किस्मत में पड़ गया ठहरा। ना राजू का ब्याह हमसे होता और ना ऐसी मनहूस खबर हमें सुनने को मिलती ! ये मीडिया वाले भी ना क्या-क्या अनाप-शनाप बकते रहते हैं। कोई कहता है आतंकवादियों के चंगुल में फंस गये। कोई कहता है जंगल में भटक गये। कोई कहता है पाक सेना के कब्जे में हैं। कोई कुछ, कोई कुछ। जितने चैनल हैं सबकी अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग। इनको क्या मतलब कि किसी का परिवार उजड़ रहा है। इन्हें तो बस टी. आर. पी. बढ़ाने से मतलब है।

हम जानते हैं कि हमारे ऊपर क्या बीत रही है। कितना प्यार करते थे राजू हमसे…। हमें अच्छी तरह से याद है, जब पहली बार वो अपने पिताजी के साथ हमारे घर आये थे। शाम का समय था। मैं अपने खाले ( आंगन ) में ईजा ( मम्मी ) के साथ ओखल कूट रही थी। ये आये और मुझे घूरकर बोले- “क्या नाम है तेरा ?”

मैंने कहा- “रूपा।”

“अच्छा, तभी तुम इतनी रूपवती हो।”

“बदमाश !”

“सच कह रहा हूँ। अच्छी लग रही हो। ऐसे ही ओखल कूटती रहना।”

“अच्छा ! मैं तो ओखल कूटती रहूंगी और तू ?”

“मैं ! मैं बार्डर में दुश्मनों को कूटुंगा। ले साले… ले साले.. और घुसेगा हमारे देश में…।” ऐसा कहते हुए वह अपने दोनों हाथों से दुश्मनों को मारने की एक्टिंग करने लगा।

उसको ऐसा करते देख ईजा बोली- “देखा चेली ( बेटी ) ! बड़ा होकर राजू फौजी बनेगा। तब तेरा ब्या ( विवाह ) कर देंगे इसके साथ। बोल राजू ! करेगा रे रूपा से ब्या ?”

राजू खुश होकर बोला- “हाँ काखी ( चाची )।”

उसके ऐसा कहते ही मैं शरमाकर भीतर भाग गई। उस समय राजू की उम्र तेरह साल की थी और मेरी बारह साल की। वो कक्षा आठ में पढ़ते थे और मैं कक्षा सात में।

इस पहली मुलाकात के बाद राजू हर महीने-दो महीने में किसी-न-किसी बहाने से हमारे घर आया करते थे। उनके साथ उनका दगड़ू ( दोस्त ) अंठी भी आया करता था। दोनों कभी दोनों हमारे यहाँ से पालंग ( पालक ) का बीज ले जाते, तो कभी घौत ( गहत ) की दाल। अंठी का असली नाम अंगद था, लेकिन अंठी ( कंचे ) खेलने में माहिर होने और चंठ ( तेज-तर्रार ) होने के कारण सभी लोग उसे अंठी कहकर ही पुकारते थे। अंठी शरारत के मामले में राजू से दो अंगुल आगे था।

बसंत ऋतु शुरू हो चुकी थी। उस दिन फुलदेई का त्यार ( त्यौहार ) था। राजू ,अंठी और उनके दस-बार दगड़ू हमारे घर आये और घर की देली ( देहली ) में फूल डालकर जोर- जोर से चिल्लाने लगे-

“फूलदेई छम्मादेई,

दैणी द्वार भर-भकार।”

ईजा ने सबके झोले में चावल, गुड़, माल्टा और पांच-पांच रूपये भेंट डाली। जब ईजा भीतर चली गई तो अंठी राजू से बोले- “ऐ राजू! भाभी का फूल…।” राजू झोले से एक गुलाब का फूल निकालकर देली में रखते हुए बोले- ” ये तेरे लिए..।” मैं गुस्से में बोली- “बदमाश…..!” मैं आगे कुछ कहती तब तक सब फूलदेई-छम्मादेई करते हुए वहाँ से रफूचक्कर हो गये।

ऐसी ही शरारत इन लोगों ने होली के टैम ( समय ) में भी की। गाँव में जहाँ-तहाँ होली की धूम मची थी। होल्यारों की टोलियाँ होली गायन में व्यस्त थीं। कहीं से ‘जोगी आयो शहर में ब्योपारी’ की आवाज आ रही थी, तो कहीं से ‘बलमा घर आवैं फागुन में’ की धुन सुनाई दे रही थी। पूरे गाँव का माहौल होली के रंग में रंग चुका था। हमारे घर के आंगन में भी होली की टोली आई ठहरी। टोली के साथ राजू ,अंठी और उनके बहुत सारे दगड़ू भी आये ठहरे। मैं खिड़की से बाहर झांककर होली का आनंद ले री थी, तभी अंठी आये और बोले- “भौजी (भाभी ), भ्यार (बाहर) आओ। होली खेलते हैं।”

हमने कहा- ” चुप ! नहीं खेलनी, हमें होली।”

तभी राजू जहाँ से आये होंगे। पीछे से आकर हमारे चेहरे पर गुलाल मल दिया और खुश होकर चिल्लाने लगे- “होली है ! होली है !”

हमने गुस्से में कहा- “क्यों अंठी से भौजी कहलवा रहे हो ? जब बड़े होकर हमारी शादी नहीं होती है !”

राजू बोले- “क्यों नहीं होगी शादी ! शादी होगी और तुमसे ही होगी। ये देखो प्यार का रंग लगा दिया हमने तुम्हारे चेहरे पर।”

हम शरमा गये, बोले- “अब लगाओगे तो ईजा से शिकायत कर देंगे।”

ऐसा कहते ही राजू कमरे से बाहर भाग गये और हमारी हंसते-हंसते हालत खराब….।

आठवीं पास कर जब हम गाँव के इंटर कॉलेज में पढ़ने गये, तब राजू उसी कालेज में दसवीं के छात्र थे। कालेज के सांस्कृतिक-कार्यक्रमों में वे सदा बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। छब्बीस जनवरी हो या पंद्रह अगस्त, उन्हें एक गीत मैंने हमेशा गाते हुए देखा-

“कश्मीर बार्डर प्यारी, मैं आफी लड़ूलो।

झन होये उदास प्यारी, छुट्टी घर ऊंलो..।”

(हे प्रिये! कश्मीर बार्डर में मैं स्वयं लड़ाई लड़ूंगा। तू उदास मत होना। मैं बाद में छुट्टी लेकर घर आऊंगा।)

उनकी आवाज में एक टीस थी, जो उनकी गायकी में भी झलकती थी। राजू को गाने के अलावा बंशी बजाने का भी शौक था। जब वो अपने दगड़ुवों (दोस्तों) के साथ ग्वाले आते थे, तो उनकी बंशी की आवाज दूर-दूर तक सुनाई देती थी। बंशी में भी वो अपने प्रिय पहाड़ी गीत की धुन कई बार छेड़ते थे। ऐसा लगता था जैसे वो ये गीत मेरे लिए ही गाते होंगे। उनकी बंशी की आवाज सुनकर ही गोपाल बाबू गोस्वामी जी का ये गीत मेरा प्रिय गीत बन गया-

“कैले बजे मुरुली ओ बैणा, ऊंची-नीची डांड्यू मा।

चिरीजैं कलेजी मेरी, त्वै देख मन मा…।”

(ओ बहन ! इन ऊंची-नीची पहाड़ियों पर मुरली किसने बजाई ? तुझे देखकर मेरे हृदय में बहुत टीस पहुंचती है।)

ओ राजू ! कहाँ हो तुम ? लौट आओ ना जल्दी! तुम्हें पता है जब से तुम गायब हुए हो, ना तो मुझे भूख लगती है और ना नींद ही आती है। ओह, भूख और नींद से याद आया। कालेज के दिनों तुम किसी बात पे मुझसे रूठ गये थे और बोले थे- “अब मैं तुझसे कभी बात नहीं करूंगा।” और पता है, मैंने तुम्हारी बात सच मान ली थी। उस रात ना तो मैंने खाना खाया और ना रात भर मैं सो पाई। ईजा दो बार मेरे लिए खाना लाई। मैंने दोनों बार यह कहकर लौटा दिया कि मुझे भूख नहीं है।

तुमको क्या पता मेरी दशा के बारे में। तुम तो पूरे हफ्ते भर मुझसे नी बोले और ना मेरी तरफ एक बार भी देखा। आग लगाई और खिसक लिए। प्रेम में ऐसा ही तो करते हैं पुरुष ! ना जाने किस मिट्टी के बने होते हैं ! दिल नाम की कोई चीज भी होती है या नहीं। खैर, आठवें दिन तुमने मुझसे माफी मांगी। शायद तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था।

तुम्हें भर्ती होने का ऐसा जुनून था कि दो-दो टाइम तुम दौड़ते रहते थे। सासु माँ ने मुझे बताया था कि सुबह चार बजे उठकर तुम गाँव के उबड़-खाबड़ रस्ते से होते हुए तीन किलोमीटर दूर सड़क पे पहुँच जाते थे और वहाँ भी सड़क-ही-सड़क टूणी की धार तक दौड़ते रहते थे। बच्चू बुबू बताते थे कि कोई और भर्ती हो न हो, लेकिन भूपाल का लड़का भर्ती जरूर होगा। भूपाल यानि मेरे ससुर जी। ससुर जी हमारे वैसे तो बहुत अच्छे हैं, लेकिन जब दारू पी के आते हैं ना तो हमारा जीना हराम कर देते हैं। सासु माँ और मुझे किसी तरह उनके मुँह में रूमाल बांधकर उन्हें उल्टा लिटाना पड़ता है। कित्ती बार समझा दिया, पिताजी दारू मत पियो, दारू मत पियो, लेकिन सुनें तो किसी की। मैं तो कहती हूँ भगवान बचाये इन दारूबाजों से।

मैं भी ना, कहाँ से कहाँ पहुँच गई ! हां तो, मैं बात कर रही थी राजू की भर्ती की तैयारी के बारे में। भर्ती के लिए उन्होंने जी-तोड़ मेहनत की थी। हाईस्कूल पास करते ही वे तैयारी में जुट गये थे। एक दिन की बात है वो ग्वाले आये हुए थे। और संयोग से मैं भी उस दिन रेखा और नीलू के साथ बकरियाँ चराने गई हुई थी। वो एक मेहल के पेड़ के नीचे बैठकर बंशी बजा रहे थे। मुझे देखकर उन्होंने पास आने का इशारा किया। मैं लजाती हुई उनके पास जाकर बैठ गई। वो मुस्कुराते हुए बोले- “मैं तुमसे ज्यादा बात नहीं कर पाता। तुम्हें बुरा तो नहीं लगता ?”

मैंने जवाब दिया- “ना !”

“तब तो ठीक है। मुझे लगता था तुम्हें बुरा लगता होगा।”

“नहीं, मुझे नहीं लगता।” मैंने बात दोहरायी।

“अच्छा है। काफी समझदार हो तुम। तुम्हें पता ही है मुझे जल्द-से-जल्द भर्ती होना है। देश के लिए कुछ करना चाहता हूँ।” उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा।

“तुम भर्ती ही क्यों होना चाहते हो ? देश के लिए कुछ तो तुम शिक्षक बनकर भी कर सकते हो, डाक्टर बनकर भी कर सकते हो…?”

“अरे पगली ! मैं बार्डर पर जाकर दुश्मनों के छक्के छुड़ाना चाहता हूँ।”

“अच्छा ! और अगर दुश्मन ने तुम्हारे छक्के छुड़ा दिये तो ?”

“तो मैं हंसते-हंसते देश के लिए जान दे दूंगा। देश के लिए जान देने का सौभाग्य तो नसीब वालों को मिलता है।”

उनकी बात सुनकर मेरी आँखों में आंसू छलक आये- “देश से इतना प्रेम है और हमसे…?”

“तुमसे ! तुमसे तो मुझे बिल्कुल प्यार नहीं है।” ऐसा कहकर वे हंसने लगे।

“अगर होता तो हमसे कहते नहीं क्या एक बार भी।”

“अच्छा बाबा। करते हैं तुमसे, बहुत प्यार करते हैं। तुम्हारे लिए ही तो सब कर रहे हैं। जल्दी भर्ती होकर तुमसे शादी कर लेंगे।”

मेरी आँखों से और तेज आंसू ढुलकने लगे। तब वो अपनी जेब से चाकलेट निकालर बोले- “रो नी बच्ची ! देख, तेरे लिए क्या लाया हूँ ! रेखा और नीलू को भी देना।” ये बातें शायद रेखा और नीलू ने भी सुन लीं थीं, तभी तो पेड़ की ओट से जोर-जोर से हंसने की आवाजें आ रही थीं।

राजू मुझसे ज्यादा प्यार करते हैं या देश से। ये बात में आज तक समझ नहीं पाई हूँ। अगर मैं कहूँ कि वो देश से ज्यादा प्यार करते हैं, तो ऐसा भी कैसे कहूँ ! कई बार उन्होंने मेरे लिए अपनी जान की परवाह नहीं की। एक बार की बात है। तब वो इंटर में पढ़ते थे। ग्यारहवीं कक्षा के एक लड़के ने रास्ते में मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझे छेड़ने लगा। मैं हाथ छुड़ाने का भरसक प्रयास कर रही थी, लेकिन वो इतना हट्टा-कट्टा लड़का था कि उसके सामने मेरी एक नहीं चली। पता नहीं कैसे इन तक खबर पहुँच गई और ये दौड़ते हुए आये। उस लड़के को इतना पीटा कि दूसरे दिन से वह मुझे बहन कहकर पुकारने लगा। अब ऐसे में मैं कैसे कह दूँ कि ये मुझे कम देश से ज्यादा प्रेम करते हैं और यदि मैं कहूँ कि वो मुझे ज्यादा और देश से कम प्रेम करते हैं, तो ऐसा भी कैसे कहूँ। एक बार की बात है तब हमारी शादी हो चुकी थी, मैं घर में ज्वर से पीड़ित थी, और इनके लिए लेटर आया कि तुमको अभी इसी वक्त कश्मीर जाना होगा। ये मुझे ज्वर में तड़पता छोड़ बार्डर पे चल दिए। वो तो अच्छा हुआ, ससुर जी की लाई दवाइयाँ असर कर गईं, वरना न जाने क्या होता।

इंटर करने के एक साल बाद ही राजू फौज में भर्ती हो गये थे। इनके दो महीने बाद ही इनका दगड़ू अंठी भी सी.आर.पी.एफ में भर्ती हो गया। और भर्ती होने के एक साल बाद ही इन्होंने मुझसे शादी कर ली। हमारी शादी भी क्या अनकसी (अजीब) थी। जाड़े के दिनों शादी की ठहरी। इत्ती बारिश हुई, इत्ती बारिश हुई कि सब बर्याती भीगकर रूमझुम हो गये। शादी के दिन ही मैंने इनसे एक वादा भी लिया कि मुझे कभी अकेलेपन का एहसास नी होने दोगे। इन्होंने भरोसा भी दिलाया, नी होने दूंगा। ड्यूटी से भी दिन में दो बार जरूर फोन करूंगा और करते भी थे, लेकिन पिछले सात-आठ दिनों से उनका ना तो कोई फोन आया, ना कोई खबर। इजा-बाबू का रो-रोकर बुरा हाल है। एक ही तो सहारा था उनका। वो भी इतने दिनों से पता नी किस हाल में है…..

राजू की पत्नी को राजू फौजी का इंतजार करते-करते दस दिन हो गये हैं। आज ग्यारहवां दिन है। रूपा को अब भी पूरा भरोसा है कि उसका पति जरूर घर आयेगा। शाम को कुछ फौजी ताबूत कंधे में उठाये उनके घर आये। फौजियों के पीछे गाँव वालों की लंबी कतार थी। उन्होंने ताबूत रूपा के घर के आंगन में रख दिया। रूपा दौड़ती हुई कमरे से बाहर आई और ताबूत के एक छोर से ज्यों-ही उसने तिरंगा हटाया, उसके मुंह से एक चीत्कार निकली-“राजू !” और ऐसा कहते ही वह बेसुध होकर गिर पड़ी…

आज राजू ने बता दिया था कि एक फौजी को सबसे ज्यादा अपने वतन से प्यार होता है। राजू का पता लगाने वाले आफिसर्स का कहना था कि राजू के सीने में कुल बारह गोलियाँ लगी थीं। जंगल के जिस बीहड़ स्थान पर उसकी लाश मिली थी उसके पास ही चार आतंकवादियों की लाशें भी मिली थीं यानि राजू ने चार आतंकवादियों को ढेर करने के बाद देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था…।

 

© पवनेश ठकुराठी ‘पवन’

E. Mail- [email protected]

 

 

Share this post

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!