कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

उत्तराखंड की प्रमुख भाषाएँ एवं बोलियाँ

उत्तराखंड में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाएँ एवं बोलियाँ 

       उत्तराखंड में मुख्यतः पहाड़ी बोली का प्रयोग किया जाता है और यह पहाड़ी बोली हिंदी की उपभाषा है। पहाड़ी उपभाषा के अंतर्गत मुख्यतः 3 बोलियाँ आती हैं- गढ़वाली, कुमाउनी और नेपाली। बोलने और जानने वालों की संख्या, इतिहास और साहित्य सृजन को ध्यान में रखें, तो ये तीनों बोलियाँ नहीं बल्कि भाषाएँ ही कही जायेंगी।

पहाड़ी हिंदी का वर्गीकरण-

       पहाड़ी हिंदी को मूलतः तीन वर्गों में बांटा गया है। पूर्वी पहाड़ी (East Pahadi), मध्य पहाड़ी (Middle Pahadi) और पश्चिमी पहाड़ी (West Pahadi)। उत्तराखंड का लगभग संपूर्ण भाग मध्य पहाड़ी भाषा क्षेत्र में आता है, जिसके अंतर्गत मुख्यतः कुमाऊँनी (Kumauni) और गढ़वाली (Garhwali) भाषाएँ आती हैं।

 1. कुमाउनी भाषा ( Kumauni Language) 

1.1 कुमाऊंनी भाषा की उत्पत्ति-

       कुमाउनी भाषा की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के दो मत हैं। डॉ. ग्रियर्सन, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी तथा डॉ. डी.डी. शर्मा ने कुमाउनी की उत्पत्ति खस (Khas) अपभ्रंश से मानी है और जबकि डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदयनारायण तिवारी तथा डॉ. केशवदत्त रूवाली ने इसकी उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से मानी है। 

1.2 कुमाउनी की बोलियाँ-

      • त्रिलोचन पांडे का वर्गीकरण- 12 बोलियाँ

        भाषा वैज्ञानिक (Language Scientist) डॉ. त्रिलोचन पांडे के अनुसार उच्चारण (pronounced), ध्वनि तत्व (Sound elements) और रूप रचना (Creationas) के आधार पर कुमाऊँनी भाषा के चार वर्ग तथा उसकी 12 प्रमुख बोलियां निर्धारित की हैं-

1. पूर्वी कुमाउनी वर्ग-

कुमैया, सोर्याली, सीराली, अस्कोटी

2 पश्चिमी कुमाउनी वर्ग-

खसपर्जिया, पछाई, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया, फल्दाकोटी 

3. उत्तरी कुमाउनी वर्ग-

जोहारी

4. दक्षिणी कुमाउनी वर्ग-

रौ-चौभैैंसी

     •प्रो० शेर सिंह बिष्ट का वर्गीकरण- 10 बोलियाँ

1.पश्चिमी कुमाउनी वर्ग-

खसपर्जिया, पछाई, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया, रौ-चौभैैंसी

2. पूर्वी कुमाउनी वर्ग-

कुमैया, सोर्याली, सीराली, अस्कोटी

1. पूर्वी कुमाऊनी वर्ग-

कुमैया (Kumaiya):-

     इस बोली को कुमाई भी कहते हैं। यह नैनीताल (Nainital) से लगे हुए काली कुमाऊं (Kali Kumaun) क्षेत्र में बोली जाती है। लोहाघाट और चंपावत की बोली ही प्रमुख कुमाई बोली है। 

सौर्याली (Sauryali) :-

       यह पिथौरागढ़ जनपद के सोर (Saur) परगने में बोली जाती है। इसके अलावा इसे दक्षिण जोहार (South Johar) और पूर्वी गंगोली (Eastern Gangoli) क्षेत्र में भी कुछ लोग बोलते है।

      भौगोलिक दृष्टि से पिथौरागढ़ जनपद का सोर परगना नेपाल का सीमावर्ती भूभाग है। नेपाल के निकट होने के कारण इस बोली पर नेपाली या खसकुरा भाषा का प्रभाव दीखता है। कुछ विद्वान सोर्याली को पूर्वी कुमाउनी की प्रतिनिधि बोली मानते हैं। 

सीराली (Sirali) :-

       यह अस्कोट (Askot) के पश्चिम तथा गंगोली के पूर्व के सीरा (Sira) क्षेत्र में बोली जाती है। इसके अंतर्गत डीडीहाट, बाराबीसी, अट्ठाबीसी, माली क्षेत्र आते हैं। 

अस्कोटी ( Askoti) :-

        यह पिथौरागढ़ जनपद के अस्कोट क्षेत्र की बोली है। इस पर जोहारी बोली, राजी बोली और नेपाली (Nepali) भाषा का प्रभाव है।

2. पश्चिमी कुमाऊनी वर्ग-

खसपर्जिया (Khasparjiya) :-

         इसे खासपर्जिया भी कहते हैं। यह बारह मंडल और दानपुर के आस-पास बोली जाती है। मुख्यतः अल्मोड़ा नगर के आसपास बोली जाने वाली खसपर्जिया ही परिनिष्ठित कुमाउनी है और इसे ही कुमाउनी की प्रतिनिधि बोली माना जाता है। 

पछाई (Pachhai) :-

         रामगंगा के ऊपर नैथाना पर्वत श्रेणी के निचले भाग में पाली नामक कस्बा स्थित है। इसी के नाम पर कुमाऊँ का पश्चिमी भू भाग पाली पछाऊं कहलाता है। इसी पाली पछाऊं परगने की बोली पछाई कहलाती है। फल्दाकोट भी इसी के अंतर्गत आता है। फल्दाकोट की बोली फल्दाकोटी कहलाती है। 

 चौगर्खिया (Chaugarkhia):-

       काली कुमाऊँ परगने के उत्तर-पश्चिमी भाग के क्षेत्र को चौगर्खा कहते हैं और इस क्षेत्र की बोली चौगर्खिया कहलाती है। चौगर्खा के केंद्र में सैमदेव की पहाड़ियाँ हैं। इस बोली पर खसपर्जिया का प्रभाव है। 

गंगोली (Gangoli) :-

         इसे गंगोई भी कहते हैं। सरयू नदी और रामगंगा का दक्षिणी भू-भाग गंगोली या गंगावली कहलाता है। इसी गंगोली (Gangoli) तथा इससे सटे दानपुर (Danapur) की कुछ पट्टियों में गंगोली बोली जाती है।

दनपुरिया (Danpuriya) :-

        यह दानपुर (Danpur) क्षेत्र की बोली है। मल्ला दानपुर इसका मुख्य केंद्र है। इसके पश्चिम में गढ़वाल तथा पूर्व में जोहार क्षेत्र पड़ता है। 

रौ-चौभैंसी ( Rau-Chaubhainsi ) :-

        इसे रौ-चौबैंसी भी कहते हैं। यह नैनीताल जिले के रौ और चौभैंसी नामक पट्टियों की बोली है। यह नैनीताल, भीमताल, काठगोदाम, हल्द्वानी (Nainital, Bhimtal, Kathgodam, Haldwani) आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।

2. गढ़वाली भाषा (Garhwali Language)

2.1 गढ़वाली भाषा की उत्पत्ति-

         कुमाऊँनी भाषा की भांति गढ़वाल की उत्पत्ति के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। मैक्समूलर (Maksmulr) ने अपनी पुस्तक ‘साइंस ऑफ लैंग्वेज’ (Science of Language) में गढ़वाली को प्राकृतिक भाषा (Prakrtik Language) का एक रूप माना है। कुमाउनी की भांति डॉ. ग्रियर्सन, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी तथा डॉ. डी.डी. शर्मा ने गढ़वाली की उत्पत्ति दरद- खस (Khas) अपभ्रंश से मानी है और जबकि डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदयनारायण तिवारी तथा डॉ. केशवदत्त रूवाली ने इसकी उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से मानी है। 

2.2 गढ़वाली भाषा की बोलियाँ-

  • जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन का वर्गीकरण- 8 बोलियाँ

      बोली की दृष्टि से गढ़वाली को डॉक्टर ग्रियर्सन (Dr Griyarson) ने 8 भागों में में विभक्त किया है-

1. श्रीनगरी, 2. नागपुरिया, 3. दसौल्या, 4. बधाणी,  5. राठी, 6. मांझ कुमैया, 7. सलाणी, 8. टिहरयाली 

       साहित्य की रचना के लिए विद्वानों ने टिहरी व श्रीनगर (Tehri and Srinagar) के आस-पास की बोली को मानक गढ़वाली भाषा माना है। जौनसारी गढ़वाल की एक अन्य प्रमुख बोली है। 

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