कठिन नहीं कोई भी काम, हर काम संभव है। मुश्किल लगे जो मुकाम, वह मुकाम संभव है - डॉ. पवनेश।

आज है अमर योद्धा जसवंत सिंह रावत का शहीदी दिवस

आज है अमर शहीद राइफलमैन जसवंत सिंह रावत का शहीद दिवस-

अमर शहीद जसवंत सिंह रावत

जन्म: 19 अगस्त 1941, पौड़ी गढ़वाल
मृत्यु: 17 नवंबर 1962, तवांग

       चीन के साथ 1962 की जंग में 17 साल के राइफलमैन जसवंत स‍िंह रावत ने अरूणांचल प्रदेश के तवांग में 72 घंटों तक दुश्मनों का मुकाबला किया और असीम पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए 300 चीनी सैनिकों को काल के पास पहुंचाया। अंत में घायल अवस्था में दुश्मन के हाथ न लगने के लिए इन्होंने स्वयं को गोली मार दी। क्रोध में चीनी सेना इनका शीश काटकर अपने साथ ले गई, किंतु बाद में इनकी वीरता को देखते हुए ससम्मान शीश वापस लौटाया। इनकी वीरता के लिए भारत सरकार ने इन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया। जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के ऐसे पहले जवान हैं, जिनको मरणोपरांत भी पदोन्नति दी जाती है। वे आज कैप्टेन की पोस्ट पर हैं और उनके परिवार वालों को उनकी पोस्ट के अनुसार पूरा वेतन दिया जाता है।
       उत्तराखंड के जांबाज वीर जसवंत सिंह रावत को उनके शहीद दिवस पर समर्पित है मेरी यह कविता-

@ शत् शत् नमन पौड़ी सपूत को @

शत् शत् नमन पौड़ी सपूत को, 
जिसने दुश्मन के छक्के छुड़ाये थे। 
सन बासठ में चीनी सेना के,
जिसने होश उड़ाये थे। 

अरूणांचल पर चीन ने जब, 
डाली अपनी गिद्ध नजर। 
गढ़वाल की चौथी यूनिट को, 
लग गई इसकी जल्द खबर। 
वीर सिपाही जसवंत तब, 
दुश्मन पर नजर गड़ाये थे। 
शत् शत् नमन पौड़ी सपूत को, 
जिसने दुश्मन के छक्के छुड़ाये थे। 

आदेश से सेना लौट गई पर, 
योद्धा तीन डटे रहे। 
छीनकर चीनी मशीनगन, 
सीमा पर वो सटे रहे। 
हुए शहीद गोपाल, त्रिलोकी, 
ड्रेगन से आंख लड़ाये थे। 
शत् शत् नमन पौड़ी सपूत को, 
जिसने दुश्मन के छक्के छुड़ाये थे। 

दो संगी संग छोड़ चले, 
पर जसवंत ने हिम्मत ना हारी। 
बहत्तर घंटों तक लड़ते-लड़ते, 
खेली अदम्य शौर्य पारी। 
ढेर कर तीन सौ दुश्मन, 
माँ काली को शीश चढ़ाये थे। 
शत् शत् नमन पौड़ी सपूत को, 
जिसने दुश्मन के छक्के छुड़ाये थे। 

नूरा, शैला रसद पहुंचाती, 
वो भी मां पर कुर्बान हुईं। 
योद्धा की दो प्राण पंछियां, 
शून्य में अंतर्ध्यान हुईं। 
खतम गोलियाँ, खतम लड़ाई, 
वीर ने अमरता के हीरे जड़ाये थे। 
शत् शत् नमन पौड़ी सपूत को, 
जिसने दुश्मन के छक्के छुड़ाये थे। 

– डॉ. पवनेश ठकुराठी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड। 

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