शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ और उनकी चयनित कुमाउनी कविताएँ
पुण्यतिथि विशेष:
शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ और उनकी चयनित कुमाउनी कविताएँ
कुमाउनी कवि शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ का जन्म 3 अक्टूबर,1933 को अल्मोड़ा बाजार से 2-3 किलोमीटर दूर माल गांव में हुआ था। आपके पिता का नाम बचे सिंह और माता का नाम लछिमी देवी था। जब शेरदा चार साल के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। घर की माली हालत अत्यधिक खराब होने के कारण जमीन, मां का जेवर सब गिरवी रखना पड़ा। वे अपने ही गांव के किसी व्यक्ति के घर पर रहते थे। वे दो भाई थे। बड़े भाई का नाम भीम सिंह बिष्ट था।
शेरदा का बचपन अत्यधिक कष्ट में बीता। जब वे आठ साल के थे तो वे शहर आ गये, जहां उन्होंने बचूली मास्टरानी के घर में नौकरी की। उस मास्टरनी ने घर के काम के साथ उन्हें घर में ही पढ़ाया। बाद में वे आगरा गये और वहाँ फौज में नौकरी की। 17-18 साल की उम्र में उन्हें सिपाही बना दिया और मोटर ड्राइवर की ट्रेनिंग देकर उन्हें गाड़ी चलाना सिखाया गया । उनकी पहली पोस्टिंग झांसी में हुई। बाद में उनकी पोस्टिंग जम्मू कश्मीर हो गयी । वहां वे 12 साल रहे। बाद में घर आने पर वे चारू चंद्र पांडेय और ब्रजेंद्र लाल शाह जी के संपर्क में आये।
शाह जी ने शेरदा से कहा कि नैनीताल मे एक सांस्कृतिक सेंटर ‘गीत एवम् नाट्य प्रभाग’ खुल रहा है और शेरदा ने वहाँ अप्लाई कर दिया। संयोग से 50 लोगों में उनका भी चयन हो गया। बस यहीं से शेरदा ‘अनपढ़’ के नाम से उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ। उन्होंने कुछ कवितायें साहित्य के लिये लिखीं तो कुछ मंच के लिये भी लिखीं। शेरदा अपनी कविताओं के माध्यम से हास्य के अंदाज में व्यवस्थाओं पर करारा व्यंग्य करते थे।
संक्षिप्त जीवन परिचय
नाम- शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’
जन्म- 3 अक्टूबर, 1933
जन्मस्थान- मालगांव, अल्मोड़ा
निधन- 20 मई, 2012
प्रकाशित पुस्तकें-
1. हिंदी कविता- ये कहानी है नेफा और लद्दाख की
2. कुमाउनी हास्य गीत संग्रह- हंसणै बहार, दीदी-बैणी, हमारे मै-बाप।
3. कुमाउनी कविता संग्रह- मेरि लटि-पटि, जांठिक घुङुर।
4. व्यंग कविता संग्रह- फचैक (1996, बालम सिंह जनौटी के साथ), शेरदा समग्र, शेरदा संचयन।
3 चयनित कुमाउनी कविताएँ
1. अहा रे सभा
जां बात-बात में हात मारनी,
वै हैती कूनी ग्रामसभा।
जां हर बात में लात मारनी,
वै हैती कूनी विधानसभा।
जां एक कूं सब सूणनी,
वै हैती कूनी शोकसभा।
जां सब कूनी और क्वे नि सुणन,
वै हैती कूनी लोकसभा।।
2. को छै तु
भुर भुर उज्याई जसी, जाणि रत्तै ब्याण,
भिकुवे सिकड़ी कसि, ओढ़ी जै निसाण
खित्त कनैं हंसण, और झऊ कनैं चाण
क्वाठन कुरकाती लगूं, मुखक बुलाण
मिसिर है मिठि लागीं, कार्तिकी मौ छै तु
पूसैकि पालङ जसी
ओ खड़्यूणी !
को छै तु ?
दै जसी गोरी उज्येइ, बिगोत जसि चिटि
हिसाऊ किल्मोड़ी कसि, मणी खटी मिठी
आँखे की तारी कसि, आँख में लै रीटी
ऊ देई फुलदेई हैजैं, जो देई तू हिटी,
हाथ पातै हरै जैंछे, के रुड़ीक द्यो छै तु
सुरबुरी बयाव जसी
ओ च्यापिणी !
को छै तु ?
जांलै छै तू देखि छै, भांग फूल पात में
और नौंणी जै बिलै रै, म्यार दिन रात में
को फूल अंग्वाव हालूं, रंग जै सबु में छै
न तू क्वे न मैं क्वे, मैं त्वी में तू मी में छै,
तारूं जै अन्वार हंसें, धार पर जो छै तु
ब्योली जै डोली भितेर
ओ रूपसी !
को छै तु ?
उताके चौमास देखिछै, तु उतुकै रूड़
स्यून की सांगई देखिछै, तू उतुकै स्यूड़
कभैं हर्याव चढ़ी, और कभैं पुजी च्यूड़
गदुवे झाल भितेर तु, काकडी फुल्यूड़
भ्यार बै अनारै दाणि, और भितेर पे स्यो छै तु
नौ रत्ती पौं जाणि
ओ दाबणी !
को छै तू ?
ब्योज में क्वाथ में रैछै, और स्यूणा में सिराण
म्यरै दगै भल लागैं, मन में दिशाण
शरीर मातण में, त्वी छै तराण
जाणि को जुग बटि, जुग-जुगै पछ्याण
साँसों में कुत्कनै है, सामणी जै क्ये छै तु
मायादार माया जसी
ओ हंसिणी !
को छै तु ??
3. घट-घट में राम रूनी
मन में धीरज धर मेरी हंसा, घट-घट में म्यार राम रूनी।
जो दुख सै ल्यूं वी जग पै ल्यूं, संत देव महान कूनी।
मन में धीरज धर मेरी हंसा, घट-घट में म्यार राम रूनी।
माया झूठी दुनियल लूटी, झोली खाली जब प्राण छूटी।
माया में जो काया ख्वेनी, ऊँ बिचा्र नादान हुनी।
जो दुख सै ल्यूं वी जग पै ल्यूं, संत देव महान कूनी।
मन में धीरज धर मेरी हंसा, घट-घट में म्यार राम रूनी।
करनी-भरनी मुखै थैं ऐ छौ, लाख चाहे लुकै ल्यो क्वे।
मन को मैल नि बगनौ, तन कदुकै ध्वे ल्यो क्वे।
करनी कैं ही पूजा समझ, मन-मंदिराक प्राण कूनी।
जो दुख सै ल्यूं वी जग पै ल्यूं, संत देव महान कूनी।
मन में धीरज धर मेरि हंसा, घट-घट में म्यार राम रूनी।
मन-मनों कौ मैल बगौ, दिल-दिलों में प्यार बड़ौ।
ऊंच-नीचक भेद मिटै, भाई-भाई संसार बड़ौ।
धरमकि नौ पार लागछो, गीता में भगवान कूनी।
जो दुख सै ल्यूं वी जग पै ल्यूं, संत देव महान कूनी।
मन में धीरज धर मेरि हंसा, घट-घट में म्यार राम रूनी।
यौ हाड़-माँसक चंदन, जो दुसरों कै काम औ।
घर-घर नारी सीता-सीता, घर-घर पुरुष राम हौ।
स्वर्ग है ज्यादा धरती कैं पूजौ, धरती में इंसान रूनी।
जो दुख सै ल्यूं वी जग पै ल्यूं, संत देव महान कूनी।
मन में धीरज धर मेरि हंसा, घट-घट में म्यार राम रूनी।।
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